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Friday, March 23, 2007

कब होगा ऐसा?


सैकड़ों चेहरे गुजरते हैं हररोज़ सामने से

पर तुमसा कोई चेहरा नज़र नहीं आता।


यूँ तो मिलते हैं कदम-कदम पे हाथ हमदमों के

थाम ले वक़्त पर, कोई हाथ ऐसा बढ़कर नहीं आता।


जाने क्या उसूल हैं, तेरे यहाँ पैग़ामों के

अर्सा हुआ, तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता।


कब से इस दोज़ख़ में जी रहा है आदमी

जाने क्यूँ कोई पैगम्बर नहीं आता।


तुमको सकूँ मिले, मैं तो बस मौत चाहता हूँ

कुछ बात है जो हमपर ख़ुदा का क़हर नहीं आता।।


शब्दार्थ-

नामाबर- संदेशवाहक

दोज़ख़- नर्क

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

SahityaShilpi का कहना है कि -

जाने क्या उसूल हैं, तेरे यहाँ पैग़ामों के
अर्सा हुआ, तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता।

हिन्द-युग्म पर पिछले कुछ समय में कई अच्छी गजलें पढ़ने को मिलीं। यह गजल भी इसी कोटि में से है। पर आखिरी शेर की दूसरी पँक्ति में 'खुदा का कहर' कुछ समझ नहीं आता। इसी तरह इससे पहले वाले शेर में आदमी शब्द का प्रयोग गजल के बाकी शेरों से इसे एकरूप नहीं रहने देता। आशा है कि आगे से मनीष जी की और बेहतर गजलें पढ़ने को मिलेंगीं।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

कब से इस दोज़ख़ में जी रहा है आदमी
जाने क्यूँ कोई पैगम्बर नहीं आता।

बहुत ही ख़ूबसूरत लिखा हे

तुमको सकूँ मिले, मैं तो बस मौत चाहता हूँ

पर यहाँ साफ़ नही हो पाया कि क्या कहना चाहते हैं आप ...

Anonymous का कहना है कि -

कब से इस दोज़ख़ में जी रहा है आदमी
जाने क्यूँ कोई पैगम्बर नहीं आता।


सुन्दर भाव.

Anonymous का कहना है कि -

जाने क्या उसूल हैं, तेरे यहाँ पैग़ामों के
अर्सा हुआ, तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता।

कब से इस दोज़ख़ में जी रहा है आदमी
जाने क्यूँ कोई पैगम्बर नहीं आता।

Anonymous का कहना है कि -

सुन्दर भाव

पंकज का कहना है कि -

गज़ल में निरन्तरता की कमी अवश्य है, किन्तु भाव में उच्चकोटि कि है।
लगता है कि मनीष जी आजकल कुछ कम लिख रहे हैं, जिसकी वजह से लेखनी में पैनापन कम ही नज़र आ रहा है।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

ये दो शेर बहुत अच्छे बन पडे हैं:

जाने क्या उसूल हैं, तेरे यहाँ पैग़ामों के
अर्सा हुआ, तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता।

कब से इस दोज़ख़ में जी रहा है आदमी
जाने क्यूँ कोई पैगम्बर नहीं आता।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Mohinder56 का कहना है कि -

सुन्दर भाव हैं कविता (गजल) और उच्च कोटी की बन जाती यदि आपने थोडी और डेन्टिंग पेन्टिंग की होती..

Upasthit का कहना है कि -

मनीष जी की गज़ल पढ कर यही लगा कि, आज कल लिखा नहीं जा रहा मनीष जी से, शायद व्यस्त हों । बहुत ही चालू गज़ल हो गयी, वही पुराने बिम्ब हैं, मनीष जैसे सधे हाथों ने गढा है इसलिये बस सब सधा सधा सा है, वरना यही बिम्ब-प्रतीक, भाषा में ढालते हुये, अनगढ भी हो सकते थे ।
पर इस गज़ल ने एक विश्वास, और जमी लेखनी वाले सधे कवियों की दयनीय स्थिति भी दिखायी है कि यही सब अनगढ होता, इतना सधा सधा न होता तो शायद प्रभावी बन सकता था.......अधिक पढ़्ना भी, बहुत कम पढने से कम घातक नहीं...

Anonymous का कहना है कि -

गुड

रिपुदमन

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