बचपन मे हमारे स्कूल के एक शिक्षक कहा करते थे..."असफ़लता यह दिखाती है कि, प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया"... आशावाद ठीक है..पर इन पांच पंक्तियों मे आशावाद कम, अपनी असफ़लता को छुपाने की कोशिश ज्यादा दिख रही है मुझे.....एक ऎंठ दिख रही है, हार छुपा न सकने की... हो सकता है पूरी बात का एक विपरीत पहलू हो यह पर, "तसल्ली"..नहीं गर्व होता तो ऎंठ की मात्रा शायद थोडी कम हो जाती....
तुषार भाई...नमस्कार.. उड़ान भरने वाली पंक्तियां बहुत ही आशा भरी हैं. ज़्यादा बडी़ बात है कर गुज़रना.बैठे-बैठे ही सोचेंगे की मंज़िल पर जा पहुंचें ...नामुमकिन. मेरे शहर के मक़बूल शायर डा.राहत इंदौरी साहब कहते हैं(माफ़ कीजियेगा शब्द्श: याद नहीं आ रहा है) ये कैंचियां क्या हमें डराएंगी हम परों से नहीं हौसलो से उड़ते हैं.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
एक आशावादी सोच.. गिरते हैं शह्सवार ही मैदान-ए-ज़ंग में....
उड़ते हुए गिरें या मर भी जायें तो कुछ बुरा नहीं
उड़ने की इच्छा लिए मरे तो क्या मरे?
घुघूती बासूती
बहुत आशावादी क्षणिका है तुषार जी.
उडान भरने पर
गिर गया
मगर इतनी तसल्ली थी
बैठे बैठे गिरा नहीं
उडान मैने भरी थी..
बस इसी के बाद दुष्यंत की ये पंक्तियाँ आरंभ होती हैं:
वे सहारे भी नहीं, अब जंग लडनी है तुझे,
कट चुके जो हाँथ, उन हाँथों में तलवारें न देख..
*** राजीव रंजन प्रसाद
एक खूबसूरत आशावादी लघुकविता.
आप सदैव ही कम शब्दों में बहुत सी बातें कहते आये हैं। इस बार आपने पुनः सिद्ध किया। साधुवाद।
कम शब्दों में बहुत सी बात... खूबसूरत हैं
सुन्दर भाव हैं आपकी उडान में.....
गिरते हैं शह सवार ही मैदाने जंग में
वो तिफल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले
छोटी मगर अच्छी कविता।
जोशीजी, छोटी और मनभावन कविता। बहोत भा गयी मनको।
- विनय सिन्हा
बात बिल्कुल ठीक है।
मेरे गाँव में एक कहावत है;
"बैठे से बेग़ार सही"।
choti kintu gehri baat...
बचपन मे हमारे स्कूल के एक शिक्षक कहा करते थे..."असफ़लता यह दिखाती है कि, प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया"...
आशावाद ठीक है..पर इन पांच पंक्तियों मे आशावाद कम, अपनी असफ़लता को छुपाने की कोशिश ज्यादा दिख रही है मुझे.....एक ऎंठ दिख रही है, हार छुपा न सकने की...
हो सकता है पूरी बात का एक विपरीत पहलू हो यह पर, "तसल्ली"..नहीं गर्व होता तो ऎंठ की मात्रा शायद थोडी कम हो जाती....
तुषार भाई...नमस्कार..
उड़ान भरने वाली पंक्तियां बहुत ही आशा भरी हैं.
ज़्यादा बडी़ बात है कर गुज़रना.बैठे-बैठे ही सोचेंगे की मंज़िल पर जा पहुंचें ...नामुमकिन.
मेरे शहर के मक़बूल शायर डा.राहत इंदौरी साहब कहते हैं(माफ़ कीजियेगा शब्द्श: याद नहीं आ रहा है)
ये कैंचियां क्या हमें डराएंगी
हम परों से नहीं हौसलो से उड़ते हैं.
शुभेच्छा माझा कडून.
संजय
बहुत khub जी बहुत acchhe.
alok singh "sahil"
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)