काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - चित्र पर आधारित कवितायें
चित्र - विवेक रंजन श्रीवास्तव
अंक - चौबीस
माह - मार्च २००९
हिन्दयुग्म को काव्यपल्लवन आयोजित करते हुए २ वर्ष पूरे हो गये हैं। मार्च २००७ से इसकी शुरुआत हुई। काव्यपल्लवन के आरम्भ से हमने किसी विषय को आधार बना कर कविता लिखने का सिलसिला शुरु किया था और आज हम चित्र पर आधारित काव्यपल्लवन आयोजित करते हैं। इन दो वर्षों में हर बार पाठकों और कवियों ने बढ़-चढ़कर हमारे इस प्रयास को सराहा है। ’पहली कविता’ के अंकों में सौ से अधिक कवियों ने भाग लिया जिसके चलते हमें यह अंक छह भागों तक बढ़ाना पड़ा।
मार्च माह के काव्यपल्लवन की उद्घोषणा के चित्र पर पाठकों ने तभी से ही अपने विचार देने शुरु कर दिये। इस माह का चित्र भेजा है विवेक रंजन श्रीवास्तव ने। चित्र पर जब विचार रखे गये तो लड़कियों, बेटियों व दहेज पर चर्चा हुई। कुछ सप्ताह पहले हमने भी ’महिला दिवस’ बनाया और इस बार का काव्यपल्लवन की अधिकतर रचनायें में भी इसी विषय के इर्द-गिर्द ही घूम रहीं हैं। इस बार कविताओं की संख्या कम जरूर हैं पर आशा करते हैं कि आपको पसंद आयेंगी। हिन्दयुग्म के नियमित पाठक व कवि तो इनमें शामिल हैं ही पर कुछ नये कवि भी हमसे जुड़ रहे हैं। आइये जानते हैं उनके विचार।
यदि आप भी अपनी किसी फोटो अथवा चित्र पर काव्य-पल्लवन आयोजित करवाना चाहते हैं तो स्वयं द्वारा ली गई फोटो या स्वयं द्वारा बनी पेंटिंग हमें २८ मार्च २००९ तक भेज सकते हैं।
आपको हमारा यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतायें।
*** प्रतिभागी ***
आचार्य संजीव 'सलिल' | विश्व दीपक ’तन्हा' | मनु ’बेतखल्लुस’ | मुकेश कुमार तिवारी | एम ऐ शर्मा " सेहर" | शन्नो अग्रवाल | मुकेश सोनी | विवेकरंजन श्रीवास्तव | रोहित चौबे "रौशन" | संगीता स्वरूप | कमलप्रीत सिंह | रज़िया मिर्ज़ा | मंजू गुप्ता |
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
मौन देखकर
यह मत समझो,
मुंह में नहीं जुबान...
शांति-शिष्ट,
चिर नवीनता,
जीवत की पहचान.
शांत सतह के
नीचे हलचल
मचल रहे अरमान.
श्याम-श्वेत लख,
यह मत समझो
रंगों से अनजान...
ऊपर-नीचे
हैं हम लेकिन
उंच-नीच से दूर.
दूर गगन पर
नजर गडाए
आशा से भरपूर.
मुस्कानों से
कर न सकोगे
पीडा का अनुमान...
ले-दे बढ़ते,
ऊपर चढ़ते,
पा लेते हैं जीत.
मिला ताल से
ताल सुनाते
सदा सफलता-गीत.
प्यार मित्र है,
नफरत दुश्मन
झुके समय बलवान...
--आचार्य संजीव 'सलिल'
उम्र हाय!
यह उम्र निगोड़ी,
उड़नखटोले पर जो बैठी,
बढती जाए थोड़ी-थोड़ी,
इस वसंत से उस वसंत तक,
मन के साथ करे बरजोरी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी।
सखियन के बाँहों में बाँहें,
डाल-डाल फिरती थी जो मैं,
कहाँ भला थिरती थी तो मैं,
एक थाल से दूजे थाल तक,
एक डाल से दूजी डाल तक,
उछल-उछल के, फुदक-फुदक के,
हवा संग गिरती थी तो मैं;
अब तो राम!
गया वह दौर,
मन उत है, पर इत है ठौर,
अब तो राम!
बस एक मलाल,
ना कहीं, पात, ना कहीं डाल,
चहुँ ओर इक लाख सवाल,
रिश्तों के रस्ते के अलावा,
उम्र ने कोई डगर नहीं छोड़ी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी।
आध-आध दर्जन भर मन की
सोच-वोच थी एक हीं जैसी,
ललक-लोच थी एक हीं जैसी,
मन जो भाए, कर जाती थीं,
मन का करके, तर जाती थीं,
मन की भांति हम सारी भी
नि:संकोच थीं एक हीं जैसी,
अब तो राम!
भय निर्भय है,
कौन हूँ मैं, यही संशय है,
अब तो राम!
हया है भारी,
जोश है मूर्छित , मैं बेचारी,
रह गई मैं, नारी की नारी,
अबला कर के अल्प-भाग्य से,
उम्र ने मेरी गाँठ है जोड़ी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी!!
अब तो इस विध हीं जीना है,
सोचती हूँ गरल पीना है,
लेकिन यह क्या....कैसा स्वर है,
मस्तिष्क कहता ....तुमको ज्वर है?
फिर क्यों , ऎसा सोच रही हो..
खुद को हीं खरोंच रही हो?
सुन रे नारी, सच बतलाऊँ,
तुमको सत्य की राह दिखाऊँ.....
"उम्र का क्या है,
एक संख्या है,
तब बढती, जब मन विह्वल हो,
भय का क्या है,
बस व्याख्या है,
मन देता, जब वह निर्बल हो|
नारी देख! तुझमें भी बल है,
तू पूरे घर की संबल है,
तो फिर भाग्य-भरोसे क्यूँ है,
अपने वय को कोसे क्यूँ है,
लोक-लाज का ध्यान हटा दे,
यौवन का अरमान हटा दे,
यौवन तो अब भी तुझमें है,
बस तुझको हीं संशय है...
संशय त्याग, खोल ले अंखियाँ,
देख तुझे, ढूँढे हैं सखियाँ !!!"
आह! आज के आज फिर से
आध-आध दर्जन भर मन में
एक हीं जैसी हूक उठी है,
वसंत है, कोयल कूक उठी है,
और वो देखो
शर्म की मारी
छिपी जा रही चोरी-चोरी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी!!
--विश्व दीपक ’तन्हा'
आज मिल के खिलखिला लें, ये लम्हा मन में बसा लें
मेरे, तेरे, इसके, उसके, संग मिल कर देख डालें,
अजनबी पर आशना से, वो सभी अनजाने ख्वाब
करके खाने का बहाना, छांव में महफ़िल सजाना,
कैमरे में क़ैद कर लो, गुनगुनाता ये ज़माना
हों भले इस्कूल में, पर लंच में हम हैं नवाब
कल खबर क्या कहर टूटे, देश,घर, या शहर छूटे
क्या है किस्मत का ठिकाना,किसकी संवरे,किसकी फूटे
हम अभी से कल को जीकर क्यूं करें ये पल खराब
दो घडी चल मिल के बैठें, कल हो जाने क्या अजाब
छूटते बचपन को थामे, सख्त-जां,मुश्किल शबाब
--मनु ’बेतखल्लुस’
आज,
सारी दोपहर
बस मन भागता रहा
बिस्तर को जैसे लग आये हो पंख
बस घूमता रहा
उसी पेड़ के इर्द-गिर्द
जहाँ,
हम सपनों को सहेजते थे
कोटर में किसी चिडिया के बच्चे सा
उम्र के उस पड़ाव पर
जब शायद,
यह कभी ख्याल नही आया कि
किसी दिन बड़ा होना है हमें
और,
सिमट आना है किसी दायरे में
बंधे हुये अपने खूंटों में
इस,
धुंधलाती हुई तस्वीर में
हमारे सामने है
अपनी आँखों से बड़े सपनें /
अपने कद से ऊँची ख्वाहिशें /
और पेड़ की शाखों से बुलंद हौसलें
जो,
वक्त के साथ सिमट आये हैं
सिर्फ, अपने आप तक
और सीमित हो गये हों
अपने सिर पर ओढे हुये
अपने हिस्से के परिवार में
जो कभी हमारे ख्वाबों मे था ही नही /
ना ही
ऐसी किसी तस्वीर में
जो आज भी
खींच ले जाती है
उसी पेड़ के इर्द-गिर्द
जिसकी घनी छांव में
हम पकाते थे अपने सपनों को
--मुकेश कुमार तिवारी
ऊंचा उठने की तमन्ना लिए
हर कदम हर बाधा को चुनौती दिए
हम बेटियाँ लाखों में एक......
सीना पिरोना बनाना सजाना
सभी जिम्मेदारियाँ घर की भी निभाना
हम बेटियाँ लाखों में एक......
अपनाते सभी रिश्ते हर संभव सजाते
बेटी ,बहिन पत्नी व माँ बन निभाते
हम बेटियाँ लाखों में एक......
किसी भी क्षेत्र में न रहेंगे हम पीछे
शूल की चुभन हो चाहे पग नीचे
हम बेटियाँ लाखों में एक......
बुलंद हैं अब हौसले ना होंगे ये पस्त
कामयाबी का सूरज ना होगा अब अस्त
हम बेटियाँ लाखों में एक......
--एम.ए. शर्मा
निखरती धूप में दिन की
पेड़ की छांव को पाकर
न जाने कितने सपनों को
यहाँ बुनती हैं यह आकर.
चहकतीं रहतीं चिडियों सी
मिलकर अपनी हमजोली में
बड़ी हुईं साथ, पढ़ रहीं साथ
मुस्कुरातीं अपनी टोली में.
उमर के इन पलों में
उम्मीदें मन में हैं पलतीं
सुनहरे पांख पर बैठी
जिंदगी उड़ती सी रहती.
गुजरते दिनों के संग यहीं
बदलते रहते हैं सपने
समय की लहरों में बहकर
दूर हो जायेंगे कितने.
अभी तो चहक रहीं संग में
बाद में फिर तपन होगी
कहीं होगी ख़ुशी तो फिर
कहीं गम और घुटन होगी.
किसी के घर की बगिया की
महकती सी हैं यह कलियाँ
कभी फिर छोड़ देंगी सब
अचानक बाबुल की गलियां.
किसी के आँगन में सजने
विदा होंगीं जब डोली में
छोड़कर बाबुल के घर को
दुआएँ लेकर झोली में.
दूर होकर एक दुसरे से
टूट जायेगा यह बंधन
तरस जायेंगीं मिलने को
पराया होगा अपनापन.
--शन्नो अग्रवाल
अलबेला बचपन अब मुझको बुलाये
बड़े दिनों के बाद फिर मुझको बुलाये
अल्हड़ दोस्तों का साथ , बस दिनभर होती थी बातें
और फिर दादी की कहानियो से आँखें मुंदती मेरी रातें ;
हर गर्मियों की दोपहर कच्ची अमिया की महक ले आये
बीते दिन फिर ना आये मुझको यूँ रुलाये
अलबेला बचपन अब मुझको बुलाये
बड़े दिनों के बाद फिर मुझको बुलाये
परीक्षा की दिन बीतते पाठ रटते - रटते
नीरस स्कूली किताबो से कभी समय ना कटते
होता हमेशा इंतजार कब पढाई ख़तम हो जाये
अब मांगू पर , बीते दिन लौट के ना आये
अलबेला बचपन अब मुझको बुलाये
बड़े दिनों के बाद फिर मुझको बुलाये
करके याद तेरी छुअन ,, मेरा दिल खिल जाये
किताबों के बीच दबा गुलाब आज भी मुस्कुराये
ज़िन्दगी के किसी मोड़ पे तू फिर से टकराए
रास्ते अलग फिर भी बेकरार दिल आज गुनगुनाये
अलबेला बचपन अब मुझको बुलाये
बड़े दिनों के बाद फिर मुझको बुलाये
--मुकेश सोनी
मन में ऊँची ले उड़ाने, बढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां
स्कूल में जो वृक्ष पर,संग खड़ी हैं ये किशोरी लड़कियां
कोई भी परिणाम देखो, अव्वल हैं हर फेहरिस्त में
हर हुनर में लड़कों पे भारी पड़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां
अब्बा अम्मी और टीचर, हौसले ही बढ़ा सकते हैं बस
अपना फ्यूचर खुद बखुद ही गढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां
तालीम का गहना पहनकर, बुरके को तारम्तार कर
औरतों के हक की खातिर लड़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां
"कल्पना" हो या "सुनीता" गगन में , "सोनिया" या "सुष्मिता"
रच रही वे पाठ खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां
इनको चाहिये प्यार थोड़ा परवरिश में, और केवल एक मौका
करेंगी नाम, बेटों से बढ़कर होंगी साबित ये किशोरी लड़कियां
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
बहुत याद आते हैं वो दिन...
बचपन के वो सुनहरे दिन
जो हमने पाठशाला में बिताये थे..,
शायद जीवन के सर्वाधिक याद किये जाने वाले दिन...
समय जो हमने शाला के आँगन में बिताये,
समय जो शाला प्रांगन में दशको से मौजूद अमराई तले बिताये.
अब तो वो शाला और वो उसके छात्र-छात्राए...
बहुत याद आते हैं वो दिन...
--रोहित चौबे "रौशन"
लोग कहते हैं कि
समाज बदल रहा है
शिक्षा का
प्रसार हो रहा है
लड़कियां लड़कों के साथ
कंधे से कन्धा मिला कर
आगे बढ़ रही हैं
और बेटियाँ बेटों की
जगह ले रही हैं .
पर सोच है कि-
वहीँ की वहीँ खड़ी है
भारतीय परिवेश में
किसी भी लड़की का
कोई स्वतंत्र आस्तित्व
नज़र नहीं आता है
कहने को लोग
पढ़े - लिखे हैं
पर पुरातनपंथी ही बने रहना
उनको भाता है .
आज भी कन्या को
जायदाद समझा जाता है
विवाह पर उन्हें
दान किया जाता है .
कहने को बेटियाँ
आज अर्थ भी कमाती हैं
पर क्या सही अर्थों में
अपने मन की कर पाती हैं?
आज भी
जात - बिरादरी की जंजीरें
उनके पांवों की
बेडिया बनी हुई हैं
माँ-बाप की ख़ुशी के आगे
उनकी इच्छा
दांव पर लगी हुई है
कहाँ कुछ बदला है?
बदला है तो बस इतना ही कि-
लड़कियों को
सोचने की ताकत तो दी है
पर सोचने की आज़ादी नहीं
धन कमाने की चाहत तो दी है
पर उपभोग की इजाज़त नहीं
आज कहने को लड़कियां
आजाद भी हैं
पर बंधनों से
आज़ादी नहीं .
गर सच में
आज़ादी पानी है
तो पहले अपनी सोच को
बुलंद करना होगा
खुद की सोच के बंधनों से
खुद को आजाद करना होगा
तभी मिलेगा वो मुकम्मल आसमां
जिसको पाने की चाहत की है
तभी खिलेगी मुस्कराहट चेहरे पर
जिसको पाने की तमन्ना की है.
--संगीता स्वरूप
अपनी आँखों में झिलमिल
सपने लिए आज
पूरा करने की राहमें खडी हैं
भविष्य इनका भी उज्जवल बने
जिसे संवारने की चाह में यह आगे बढी हैं
विद्या के मंदिर में आयीं
सभी शीश नवाने
पहले खुद समझने आयीं हैं
ताकि चल सकें साथ ज़माने
इसी लोक की ललनाएं हैं
अपने कल को संवारें
कैशोर्य अपना -हंस खेल गुजारें
खुशकिस्मत हैं सभी
आते यौवन की देहरी पर
आँख कोई क्रूर न रही
इनके जन्म ओ दामन पर
सपनों को साकार करें परिवारों में अपने
आज यही है चाह सभी की
जितने भी है अपने
भावनाओं ने इनकी सदा
वास्तविकताओं को संवारा है
इन अर्थों में न्यारा
सचमुच देश हमारा है
--कमलप्रीत सिंह
देखो कैसे खिलखिलाया बचपन
अच्छा लगता है जीवन का शैशव
हरे भरे पेड़ हैं प्रकृति का सृजन
नारी देती है जग को नवसृजन
संसार का सृजनहार हमारा एक
सृष्टि में धरा गगन सूरज चॉंद एक
जग में क्यों होता है लिंग भेदभाव
जग में जन्म देती है सबको मॉं
पेड़ काट कर पर्यावरण हुआ खराब
लिंग असंतुलन से है नारी का अभाव
इसलिए जग मनाता पर्यावरण दिवस
आठ मार्च को जग मनाता विश्व स्त्री दिन
करे मानव संसार में ऐसा काम
भेदभाव असमता का करें विनाश
समरसता हरियाली का करें प्रकाश
संतुलन के गीत गाएं धरा आकाश
--मंजू गुप्ता
अभी तो हमें पढ़ना है, ख़ेलना है।
हँसना है, हँसाना है।
छूना है ऊंचाइयों को, उडना है आसमान पर,
देख़ना है सारे विश्व की ख़ुबसुरती को,
जिस दुनिया में जन्म लिया है उस दुनिया को
अभी तक ठीक से देख़ा ही कहाँ है अभी हमने?
कुछ दिन और रुक जाओ ना पापा प्लीज़,
,फ़िर चाहे हमें भेज देना हमें किसी की दुल्हन बनाकर।
हाँ! हमें पता है कि हमें ही ज़िम्मेदारी निभानी है,
सँभालनी है ऎक घर” की, एक परिवार की,
जो आज तक सँभालती आई है हमारी माँ,भाभी,बहन,दादी,
और अब हम भी निभएंगे यही ज़िम्मेदारी।
क्यों कि हम भी एक नारी हैं। पर अबला नहिं!
हमें गर्व है कि हम लड़की हैं। नारी हैं।
कभी डाली बनकर, कभी माली बनकर,
हमें ही ख़िलाना है, इस ज़ीवन की बगिया को।
पर अभी कुछ दिन और पापा............
--रज़िया मिर्ज़ा
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
१३ में से ४ महिला रचनाकार , हर रचना बिल्कुल प्रासंगिक , महिला मास पर हिन्द युग्म का शानदार आयोजन .. बधाई ... सभी कवियों को . विशेष रूप से नये जुड़े रचनाकारो को ..
बहुत बढिया प्रयास है आपका ... ढेरो बधाई।
काव्यपल्लवन के दो वर्ष पूरे होने की बहुत बधाई
धन्यवाद !!!
'काव्यपल्लवन' को यह दूसरा जन्म-दिन बहुत मुबारक हो! और इसके रचयिता यानी इस सुंदर नाम से सबको कविता लिखने का प्रोत्साहन देने वाले को भी बहुत बधाई.
सभी की रचनाएँ पढने का सौभाग्य मिला. सबके भाव-भरी रचनायों का आनंद उठाया.
और मनु जी की लिखी यह पंक्तियाँ:
'आज मिलकर खिलखिलालें, यह लम्हा दिल में बसा लें'.
वाह !! धन्यबाद.
काव्य पल्लवन हुआ अंकुरित
लें शत बार बधाई.
भाव सलिल संग
शिल्प खाद दे
करें पल्लवित इसको.
पुष्पित-फलित
समय पर हो यह
सुखानंद दे सबको.
काव्य पल्लवन हुआ अंकुरित
लें शत बार बधाई.
भाव सलिल संग
शिल्प खाद दे
करें पल्लवित इसको.
पुष्पित-फलित
समय पर हो यह
सुखानंद दे सबको.
वर्माजी,
मुस्कानों से
कर न सकोगे
पीडा का अनुमान...
उक्त दोहे की प्रथम पंक्ति गुम है |
होली सांध्य चिन्तन पर की गई आपकी टिपण्णी पुनः आपको समर्पित है :- ..... दोहा-लेखन का अच्छा प्रयास किया है. धीरे-धीरे छंद सध जायेगा. प्रयास करते रहिये. मात्राएँ देखिये... कहीं-कहीं १३-११, १३-११ में चूक........
छाया चित्र पर सटीक भावो से परिपूर्ण रचना हेतु बधाई | इस चित्र के सन्दर्भ में यह श्रेष्ठ रचना है |
मनुजी,
सच्ची बिना लाग लपेट की ओरिजनल पंक्तियाँ|
आपकी यही खासियत आपको विशिष्ट बनाती है | आपकी टिप्पणियाँ इस का दर्पण है |
"उम्र का क्या है,
एक संख्या है,
तब बढती, जब मन विह्वल हो,
भय का क्या है,
बस व्याख्या है,
मन देता, जब वह निर्बल हो|
*
."तन्हा' जी बहुत अच्छे !
*
शूल की चुभन हो चाहे पग नीचे
हम बेटियाँ लाखों में एक......
"सेहर" जी
दो पंक्तिया पुरे एक उपन्यास की प्रतिनिधि लगी |
शन्नो जी सही कहा :
अभी तो चहक रहीं संग में
बाद में फिर तपन होगी
कहीं होगी ख़ुशी तो फिर
कहीं गम और घुटन होगी.
*
काव्यपल्लवन की वर्षगाँठ पर सयोजको को हार्दिक बधाई |
और पल्लवित पुष्पित होने की कामना |
*
विनय के जोशी
दूसरी वर्षागाँठ पर बहुत बहुत बधाई सभि कवितायेन लाजवाब हैँ
काव्यपल्लवन की वर्षगाँठ पर सयोजको को हार्दिक बधाई
Regards
सभी रचनाकारों ,पाठकों,, को बहुत बहुत बधाई,,,,
हौसलाअफजाई का दिल से आभार,,,
एवं हमारे प्रिय काव्य पल्लवन को दो वर्ष पूरे करने पर ढेरों,,,,बधाई,,,,,
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