जैसाकि ८ मार्च, २००७ को हिन्द-युग्म ने मुझे काव्य-पल्लवन की संचालिका नियुक्त करने और काव्य-पल्लवन के प्रथम अंक (मार्च-अंक) को इस माह के अंतिम गुरुवार को प्रकाशित करने की उद्घोषणा की थी।
हम काव्य-पल्लवन के प्रवेशांक के साथ आपके समक्ष उपस्थित हैं। चूँकि यह नये तरह का प्रयास है, अतः मात्र आदिनियम सम्भवतः शत-प्रतिशत सदस्य कवियों को मार्गदर्शित नहीं कर पाये हों। फिर भी मेरा यह मानना है कि प्रत्येक कवि ने अपना पूरा ज़ोर लगाया है।
काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - आधुनिक विकास और गाँव
विषय-चयन - गिरिराज जोशी "कविराज"
अंक - प्रथम (आमंत्रण-अंक)
माह - मार्च 2007
बाँसुरी गिटार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी..
पीने का पानी काला है
कालिन्दी गंदा नाला है
कंकरीट के जंगल में
पीपल की छैंया रोती है
कल यह मुन्नी पूछ रही थी
तितली कैसी होती है?
खेतीहर फैक्ट्री चले
रोज़ी अब पगार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
बीमारियों में घर साफ़ हो गये
ओझा "झोला-छाप" हो गये
पग्गड़ लंगोट हो गयी है
बकरियाँ " गोट " हो गयी हैं
चौपाल पर कबूतर हैं
शराब जब वोट हो गयी है
अंगूठे हस्ताक्षर हो गये
आमदनी उधार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
- राजीव रंजन प्रसाद
मेलों में बिकते खीले-गटे
जुएखानों के सट्टे हो गये
जुगनूँ ,लालटेन, नानी की कहानियाँ
पाश्चात्य संगीत में खो गये
चारपाई, छप्पर,आंगन न मिला
तो गगन चूमती अट्टालिकाओं में सो गये
गोबर लिपी ज़मीन फ़र्श हो गयी
बाजरे की रोटी बेकार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
- अनुपमा चौहान
बैलों की मटमैली मेहनत को डीज़ल अब मुंह चिढाने लगे ,
हल की हल्की रंगत से हलधर भी अब उकताने लगे,
नैया के जो खेवैया थे वो मोटर के गुण हैं गाने लगे,
धान और पुआल के ढेरों को उनकी औकात बताने लगे।
मिट्टी की हलाहल परतों से उनका जीवन अब दूर हुआ,
सुसंस्कृत होने के पथ में अब ऐसा ही है दस्तूर हुआ,
अंग्रेज़ी के दो अक्षर से दो जून की रोटी मिलती है,
अब ख्वाबों में "ए,बी, सी,डी", " क,ख, ग,घ" काफूर हुआ।
अब जब भी मेरी गैया मेरी मैया को बुलाती है,
मेरी माँ कुछ यूँ समझाती है-
अपनी सुविधा और दुविधा के सब लोग ही यहाँ चितेरे हैं,
तू भूल जा बासी प्रीत को अब, अब ममता के विकल्प बहुतेरे हैं ,
तेरी ममता डिब्बों में ले दूध का रूप बिकती है,
सच कहती हूँ इस दुनिया में धन की बातें ही टिकती हैं,
खूँटे में बंध कर मेरी जीजिविषा
तूझ भांति ही लाचार हो गई,
लो राधिका गँवार हो गयी...
- विश्व दीपक 'तन्हा '
जबसे बिजली आयी गांव में
जुगनुओं को मिल गया देश निकाला
दस जमातें पढ कर जग्गू ने
गांव को छोड़ा शहर सम्भाला
जाने कैसी हवा चली आजकल
बहु-बेटियों ने हैं सर उघाड़े
जवानी की हैं तनी सी नजरें
बुजुर्गी शर्मसार हो गयी
राधिका गंवार हो गयी...
- मोहिन्दर कुमार
बग्गड़ बाबा अब ज़्यादा हाँफते हैं,
दमें की बीमारी, शै-सवार हो गयी;
पोते की पढ़ायी आगे मुश्किल है,
फीस बीस रुपये माह नागवार हो गयी।
कपड़ों पर भारी 'सेल' ज़ारी है,
'५०' धन '४०' है तो,मारामारी है।
किसकी साड़ी का रंग बेहतर है इस बात पर,
किट्टी पार्टी में तक़रार हो गयी;
राधिका गँवार हो गयी।
-पंकज तिवारी
दुनिया तेज़ हो गई है
सेहत,
निबोरी,
आ गये हैं चलकर
बंद होने डिब्बों में।
डिब्बे
नीम के,
तुलसी के,
पुदीने के,
लहसुन के,
मक्के के,
दूध की नदियों के
सब नुसख़े सदियों के,
डिब्बे में मिलते हैं ।
ठंढी हवाओं के
झरने के पानी के,
सबके ही डिब्बे हैं ।
अब
नहीं होते किसान
खेतों में,
फ़ैक्ट्री में
मज़दूर होते हैं ।
किसान तो कब के
मर गये भूखों ।
तांगे बिक गये,
मोटर घोड़े से तेज़ चलती है,
हल बिक गये,
बैल ट्रैक्टर से तेज़ नहीं
उनका क्या काम,
अब वे जाएँगें
शहरों में
' स्लाटरवेयर' कहलायेंगें
मिलेंगें
डिब्बों में
वे भी ।
देखा ,
दुनिया कितनी तेज़ हो गयी ,
अब तू ही बता ,
तेरे कृष्ण की बंसी
जैक्सन की चिल्ल-पों के आगे
क्या है ?
गोकुल की सारी गोपियाँ
संस्कृति के उबाऊ कपड़े
फाड़-फेंककर
' बेब' हो गयीं
और तू,
राधिका, गँवार हो गयी ।
- आलोक शंकर
संस्कृती की विडंबना का
जब जब अहसास होता है
एक ही प्रश्न बारी बारी
मुझमें तीर चुभोता है
किस बला की वज़ह से अपनी
संस्कृती अचानक खो गई?
क्यों हुआ ऐसा अपनी
राधिका गँवार हो गई ?
गाँव में बिजली आने से क्या
किसान गरीब हो जाता है
अच्छी सड़कें बनने से क्या
चलने वाला रोता है
ऐसा क्या है जिससे अपनी
सभ्यता धम्म से सो गई
क्यों हुआ ऐसा अपनी
राधिका गँवार हो गई?
अग्रेज़ी की बरसात में
भाषा धुंधला रही है
शब्दों में असर खो गया
परिभाषा धुंधला रही है
कहाँ है वो पत्थर सी दृढता
चतुराई हवा हो गई
क्यों हुआ ऐसा अपनी
राधिका गँवार हो गई?
कोई आये विकास लेकर
इतिहास को भी न भूले
संस्कृती का जतन करे
सभ्यता का बीड़ा ले ले
अपनी भाषा का अभिमान रखे
नयी भाषाओं को भी सीखे
गाँव की और डेरा डाले
तपस्या का आकाश छूले
खोज निकाले समय की आँधी
गाँव को कहाँ डुबा गई?
क्यों हुआ ऐसा अपनी
राधिका गँवार हो गई?
क्या वो कोई मै नही हूँ?
क्या वो कोई तुम नही हो?
क्या तुम्हीं हो जो अब भी
तरुण होने का दम भरते हो
दृढता और विश्वास की शक्ति
चरित्र के शंख में फूँको
विकास और परंपरा को
सही प्रमाण में लेकर देखो
फिर न कह सके अपनी
भारतीयता बीमार हो गई
फिर न कह सके कोई
राधिका गँवार हो गई
- तुषार जोशी
क्या हो रहा है ?
सारा परिवेश बदल रहा है।
प्रत्येक व्यक्ति
गाँव से शहर की ओर दौड़ रहा है।
शान्ति को त्याग कर,
क़ोहराम की ओर जा रहे हैं।
गॉंव के छाछ की जगह,
कोला बोल रहा है।
चिट्ठी चौपाती की अब आस नहीं रहती,
जब से आया मोबाइल बात ग़ज़ब होती।
जब से चली है पश्चिमी बयार,
हवा में अश्लीलता भर गई है।
आठ गज़ की साड़ी की जगह,
छ: इंच की मिडी रह गई है।
गंगा की तहज़ीब बदल गई है,
इसका किनारा पापियों का बसेरा बन गया।
गॉंव की झोंपड़ियाँ अब रंग बदल रही हैं,
वो अब पक्के मकान में बदल रही हैं।
गाँवों की मिट्टी में अब वो महक नही,
अब चारों दिशाओं में शराब महक रही।
बदल रहा है गाँव
गाँव के मायने बदल रहे हैं।
अपने को दोष देने के बजाय
लोग दूसरे को बदलने की आस लख रहे हैं।
गाँव अपने विकास से पीड़ित हो स्वर्ग सिधार गई,
देखते ही देखते राधिका गंवार हो गई।
- प्रमेन्द्र प्रताप सिंह
फूलों की महक, खलियानों की रंगत
बचा रह गया अब यादों में पनघट
बस गया है गाँव मॉल में,
गाड़ियाँ दौड़ रही हैं सरपट
गाँवों का विकास हो रहा है
खेतों पर मॉल बन रहा है
बारिश नहीं, है पैसों की चिंता
खाना अब रेडिमेड मिल रहा है
मंगलू, सरजू, किसना, धरमा
मॉटी, सैंटी, क्रिश... बन गये हैं
गाय, भैंस, बकरी, भेड़ अब
आवारा बनकर खटक रहे हैं
आरामपरस्त अब किसान हुआ है,
टाई पहनकर साहब हुआ है
पैसों की माया, क्या करे बेचारा?
पूंजीवादी दृष्टिकोण हुआ है
मोहब्बत व्यवसाय हो गई
चौपाल अब यादें हो गई
दिल रोता है देखकर, अपनी
राधिका गंवार हो गई
- गिरिराज जोशी "कविराज "
शायद कवि शैलेश भारतवासी ने इस विषय पर भिन्न शैली में लिखकर शेष लेखकों का ध्यान काव्य-पल्लवन के विस्तार की ओर खींचा।
गनौरिया के बपई
को किसी ने कहा था
साव जी!
दुनिया बहुत तेज़ी से
बदल रही है।
लइकवा को काहे नहीं
सूरत भेज रहे हैं?
सुग्रीम के दोनों बेटा
गये थे, मालूम है?
दुई महीना में
दो-दो मोबाईल
खरीद लिये हैं।
पाँच बीघे ज़मीन से
पाँच लोगों का पेट
नहीं पाला जा सकता।
और
जब घर की बेटी
सयान हो रही हो
तब तो उसकी शादी ही
तीरथनहान है।
जैसे-जैसे
टैम बदल रहा है
मानुष सऊकीन होते जा रहे हैं।
सुना है कि
अब हमरो गाँव में
बत्ती आयेगी।
१५ रुपया का खरच और
कहाँ से लायें? कैसे लायें?
सरकारो पगला गई है।
गनौरिया सूरत ही चला जाता
तो कम से कम डोली तो उठती!
गनौरिया से सन्ती को
बड़ी उम्मीदें हैं।
बरहम बाबा को
तब से भूख रही है
जब से प्रीत लगाई है।
टिकुली-लिपिस्टीक
से बड़ा मोह है।
गनौरी नहीं होते तो
कौन सरधा पुराता?
सुगुवा के भतार
दिल्ली में कमाते हैं।
तीन गो साड़ी लाये हैं।
का डिज़ाइन है!
गनौरी भी दिल्ली चले जाते तो!
गनौरिया!
पाँच साल से वही बुशट
पहिन रहा है
उसका मन नहीं करता कि
सन्ती को साईकिल पर घुमाये?
सनीमा दिखाये?
ख़न्ती कोड़ने से क्या मिलता है?
सरकार पिचासी देती है
परधान पइतीस।
रामचलितरे के बढ़िया है
लुधियाना से हर महीने
एक हज़ार तो भेज रहा है।
सोच रहा हूँ लुधियाना चला जाऊँ।
-शैलेश भारतवासी
शब्दार्थ-
बपई- पिता, लइकवा- लड़का, तीरथनहान- तीर्थ-स्नान, टैम- समय, सऊकीन- शौकीन, बरहम बाबा- एक तरह के ग्राम्य-देवता, भूख रही है- उपवास(व्रत) कर रही है, सरधा पुराना- इच्छा पूरी करना, भतार- भर्तार, पति, बुशट- शर्ट, कमीज़, ख़न्ती- मिट्टी काटने की क्रिया, परधान- ग्राम-प्रधान,
चूँकि यह काव्य-पल्लवन का प्रथम अंक है, फिर भी हमें आशा है कि नया स्वाद खोजने वाले सुधी पाठकों की थोड़ी-बहुत क्षुधा अवश्य मिटेगी। आपके मार्गदर्शन और आपकी टिप्पणिओं की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
17 कविताप्रेमियों का कहना है :
बधाई।
नई शुरुआत नयी सोच बेहद बढिया है।
वाकई राधा गँवार हो गई है। किसानों के मजदूर होने से तो गँवार होना भला।
यह अंक बहुत अच्छा लगा। बधाई!
अब तो गाँव भी शहर होने लगे ,,फ़िर भी विषय अच्छा है.्राजीवजीकी शुरुआत सही रही.
अनुपमाजी धन्यवाद
बाकई तारीफ करनी होगी शेलेस जी की जिस तरह से ये लिखते हे। बहुत ही बडिया
हिन्द युग्म का यह नया प्रयास भी बहुत अच्छा लगा। कुछ रचनाएं बहुत पसंद आईं। आशा है कि आगे यह परंपरा और निखरेगी।
काव्य पल्लवन का बखूबी संचालन करने के लिये सर्वप्रथम तो मैं अनुपमा जी को साधुवाद देना चाहता हूँ। मैं साथ ही गिरिराज जी का भी धन्यवाद कहूँगा इतना सुन्दर विषय चयनित करने के लिये,चूंकि यह विषय स्वयं में एक विचार है। विषय देखते ही मेरे मन में विचार कौंधा:
"बाँसुरी गिटार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी.."
यकीन मानिये अपना भाग मैंने विषय मिलनें के अगले पाँच मिनट में ही लिख लिया था..यह विचार था ही इतना सशक्त कि कलम स्वत: बाध्य हुई। लेकिन आज देखा तो मन प्रसन्न हो गया "राधिका गंवार हो गयी" कई सोच में पल्लवित हो कर एक खंडकाव्य हो गयी।
कुछ बहुत सुन्दर पुष्प उद्धरित कर रहा हूँ..
"गोबर लिपी ज़मीन फ़र्श हो गयी
बाजरे की रोटी बेकार हो गयी"
-अनुपमा
तू भूल जा बासी प्रीत को अब, अब ममता के विकल्प बहुतेरे हैं ,
तेरी ममता डिब्बों में ले दूध का रूप बिकती है,
-विश्वदीपक तनहा
जबसे बिजली आयी गांव में
जुगनुओं को मिल गया देश निकाला
दस जमातें पढ कर जग्गू ने
गांव को छोड़ा शहर सम्भाला
-मोहिन्दर कुमार
बग्गड़ बाबा अब ज़्यादा हाँफते हैं,
दमें की बीमारी, शै-सवार हो गयी;
पोते की पढ़ायी आगे मुश्किल है,
फीस बीस रुपये माह नागवार हो गयी।
- पंकज तिवारी
अब तू ही बता ,
तेरे कृष्ण की बंसी
जैक्सन की चिल्ल-पों के आगे
क्या है ?
गोकुल की सारी गोपियाँ
संस्कृति के उबाऊ कपड़े
फाड़-फेंककर
' बेब' हो गयीं
और तू,
राधिका, गँवार हो गयी ।
- आलोक शंकर
दृढता और विश्वास की शक्ति
चरित्र के शंख में फूँको
विकास और परंपरा को
सही प्रमाण में लेकर देखो
फिर न कह सके अपनी
भारतीयता बीमार हो गई
फिर न कह सके कोई
राधिका गँवार हो गई
- तुषार जोशी
जब से चली है पश्चिमी बयार,
हवा में अश्लीलता भर गई है।
आठ गज़ की साड़ी की जगह,
छ: इंच की मिडी रह गई है।
गंगा की तहज़ीब बदल गई है,
इसका किनारा पापियों का बसेरा बन गया।
- प्रमेन्द्र प्रताप
मोहब्बत व्यवसाय हो गई
चौपाल अब यादें हो गई
दिल रोता है देखकर, अपनी
राधिका गंवार हो गई
- गिरिराज जोशी "कविराज
सुना है कि
अब हमरो गाँव में
बत्ती आयेगी।
१५ रुपया का खरच और
कहाँ से लायें? कैसे लायें?
सरकारो पगला गई है।
गनौरिया सूरत ही चला जाता
तो कम से कम डोली तो उठती!
- शैलेष भारतवासी
मैं सभी मित्रों को जो इस अनुपम रचनाश्रंखला का अंग हैं..बधाई देता हूँ।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सभी मित्र कवियों के प्रयासों की सरहना करता हूँ कि सभी ने एक विषय पर इतनी अच्छी कविता लिखी है।
सभी को बधाई
एक से एक रचना पढ़ने को मिली ...बहुत ही सुंदर प्रयास है सबका
अगले लिखे का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा
हमारे आसपास के यथार्थ को सूक्ष्मता से पकड़ने और सुन्दर भाव-बोध के साथ कविताओं के रूप में प्रस्तुत करने का आप सभी युवा कवियों का प्रयास अत्यंत सराहनीय है। मेरी ओर से हिन्दी युग्म की पूरी टीम को साधुवाद और हार्दिक शुभकामनाएँ।
अच्छा प्रयास है, मेरे सभी कवि मित्रों को हार्दिक बधाई।
प्रमेन्द्र जी को विशेष!!
आप सब सृजन शिल्पी हैं । यह आन्दोलन मजबूत हो ,फैले।
काव्य-पल्ल्वनः बहुत ही अच्छा लगा। एक से बढ कर एक सुन्दर रचनाएं है,...बहुत बहुत बधाई। मुख्यतः कुछ कवियो की रचनाएं बेहद पसन्द आई।
राजीव रन्जन,अनुपमा,विश्व दिपक,मोहिन्दर,तुषार जोशी,गिरीराज जोशी,ऒर शैलेश जी के तो क्या कहने कविता से गाँव ही पहुँचा दिया,...आशा है आगे भी पढ्ने को मिलता रहेगा।
सुनिता (शानू)
mere liye yah kisi aetihasik din ke mafik hai,aaj maine kavy pallawan ka praveshank padha.anand aa gaya.
mujhe khushi hai ki aarambh me bhi aap sab log utne hi sakriy aur dridh the jitne ki aaj.
main kavy pallavan ke samst karta dhartaon ko dheron shubhkamna aur sadhuwaad gyaoit karta hun.
apka
alok singh "Sahil"
main pahli bar is site par visit kar rahi hun."radhika ganwar ho gayi" ank padhkar sachmuch achha laga.
hum naye jamane ki daud me shamil hone ke chakkar me apni sanskriti ko bhul rahe hai.kavita ka yah madhayam bahut achha hai logo tak sachai pahuchane ka
michael kors outlet
moncler outlet
nike air max 90
michael kors outlet
cheap michael kors handbags
toms shoes
cheap jordans
cheap ray bans
ed hardy uk
moncler jackets
आप सभी की कविताएं पढ़ी बहुत ही खूबसूरत है।हम एक ओर प्रयास कर रहे है कि आप अपनी कविताएं हमें भेजे हम उन्हें दुनिया से रूबरू कराने की कोशिश करेंगे । हम कोशिश करते है कि आपकी कविता को एक उच्च स्थान मिल
आप अपनी कविता हमें भेजिए
prateek1033@gmail.com
Hamara page ek bar jaroor dekhe
Ekyad.blogspot.com
वाकई बहुत बढ़िया लिखा है सर
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)