लोहे के पुल से
कोई ट्रेन
धड़धड़ाती हुई गुजरती है
बूढ़ी नदी
चौक कर जाग जाती है।
पानी के मोटे चश्मे से
झाँकती हैं
दो लिजलिजी आखें
बुदबुदाती है नींद में
जैसे ही आँख लगती है
कोई मल्लाह मारता है चप्पू
पकी छाती में
बेचारी ऐंठ कर रह जाती है
दिन भर घिसटती रहती है अपने आपको
थकी-थकी नींद से बोझिल..................
....मेरे बगल वाली नदी
कभी चैन की नींद सो नहीं पाती है।
कवि-मनीष वंदेमातरम्
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
सचमुच आजकल ज्यादातर नदियों की हालत देखकर यही लगता है कि जैसे वो बस खुद को घसीट रहीं हों। बहुत अच्छा लिखा है आपने। ऐसे ही लिखते रहें। आपकी अगली कविता की प्रतीक्षा रहेगी।
जो ऊपर से शांत नजर आते हैं उनके भीतरी तुफ़ान से सावधान रहना चाहिये... चाहे तो मल्लाह या मछुआरे से पूछ कर देख लीजिये...
बहुत ही सुंदर तरीक़े से लिखा है ...एक सच को कविता के रूप में पढ़ना अच्छा लगा !!
nice personification.
congrates manishjee
वाह मनीष जी यह आपकी बेहतरीन कविता है। दृष्य खींचते से बिम्ब हैं और छू कर गुजरती हुई संवेदनायें..आपको बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
यह आपकी अबतक की सबसे अच्छी कविता है … अच्छा है … लिखते रहिये
संवेदनाओं को अच्छा स्वरूप दिया है आपने.
कोई मल्लाह मारता है चप्पू
पकी छाती में
बेचारी ऐंठ कर रह जाती है
घटना विशेष का संजीव चित्रण करती आपकी ये पंक्तियाँ शानदार है. बधाई!
सोचने की बात है कि जो व्यक्ति निर्जीवों को इतने करीब से देख सकता है;
वो जीवधारियोंसे कितना लगाव रखता होगा।
बेहतरीन, मनीष जी।
नदी का मानवीकरण कहूँ या फिर मानव का नदीकरण , हर रूप में यह कविता जीवन के कटु सत्यों को हीं दर्शाती है।
मनीष जी की अब तक की सबसे अच्छी कविता यहाँ प्रस्तुत हुई है, ऎसा मेरा मानना है। इसके लिए मैं शैलेश जी का शुक्रगुजार हूँ।
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