हिंद-युग्म अपने सभी पाठकों को गणतंत्र दिवस की इकसठवीं वर्षगाँठ पर बधाई देता है। स्वतंत्रता के बाद भी तमाम सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं से जूझते हमारे गणतंत्र के लिये ऐसे महत्वपूर्ण दिन सिर्फ़ गौरव के क्षण ही नही होते बल्कि वे हमें अपनी विकास-यात्रा के पुनरावलोकन का अवसर भी देते हैं।
भारत की संस्कृति की जड़ें कोई 62-63 साल की नही वरन हजारों सालों के इतिहास मे गहरे तक गड़ी हैं। इस लंबे कालानुक्रम मे कई उतार-चढावों के बावजूद हमने अपनी जिजीविषा कायम रखी और अच्छे भविष्य के प्रति आशाएं भी जीवित रखीं। एक सुखद भविष्य और समरसतापूर्ण समाज की अवधारणा को बनाये रखने के लिये आत्मालोचन करते रहना भी अत्यावश्यक है। क्षणिक आत्मगौरव मे गर्वोन्मत्त हुए बिना अपने अतीत की समस्याओं को आलोचक दृष्टि से परखना और उनसे सीख लेना एक स्वस्थ समाज के लिये बहुत जरूरी प्रक्रिया होती है। तीन साल पहले गणतंत्र दिवस के अवसर पर ही कवि अवनीश गौतम की कविता ’अट्ठावन बरस गणतंत्र के’ ने स्वतंत्र भारत मे बढ़ती विसंगतियों की और इशारा किया था। और आज अगर हम इसे दोबारा पढ़ें तो देखते हैं कि वो सारी समस्याएं पहले की अपेक्षा अब अधिक मुँह बाये खड़ी हैं। दिसंबर माह की प्रतियोगिता की चौथी कविता भी हमे अपने अतीत के आत्मालोचन का एक मौका देती है। रचनाकार नरेंद्र तोमर की यह कविता सर्वज्ञात पौराणिक तथ्यों पर कुछ तल्ख सवाल उठाती है। किन्ही मद्दों पर असहमति होना कोई अस्वाभाविक बात नही, मगर जरूरत उन सवालों को खारिज करने की नही वरन बिना भावनात्मक हुए निष्पक्ष दृष्टि से उन प्रश्नों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा करने की है।
पुरस्कृत कविता: महानता
महान है हमारा राष्ट्र
महान है हमारी संस्कृति सनातन
हमने रचे हैं वेद-उपनिषद-पुराण
निर्मित की हैं संहिताऐं
उद्घोष किया है
वसुधैव कुटुंबकम् का
पर वसुधा के इस कुटुंब में
सब जन समान नहीं।
अंगूठा काट दिया जाता है
एकलव्य का
मार देते हैं हमारे मर्यादा पुरूषेात्तम
शूद्र शंबूक को
कि प्रसन्न रहे ब्राह्मण।
हमारे पूर्वज, यशस्वी सम्राट
दशरथ. शांतनु और ययाति
मोहित होते रहते हैं
बेटी की आयु की
कैकईयों, गंगाओं पर
और डूबे रहते रात दिन भोग-विलास में
लेकर सैकड़ों माँओं से उत्पन्न
अपने पुत्रों की तरूणाई।
महान हैं हम
वशिष्ट हमारे देवताओं
ब्रह्मा विष्णु महेश
के बीच लगी रहती है होड़।
साबित करने को अपनी श्रेष्ठता,
सोम और सुंदरियों से सदा घिरे
सिंहासन से चिपके
सदा भयभीत
इंद्र
भेज कर अपनी
रंभाओं और मेनकाओं को
खंडित करते रहते हैं
तप
तपस्वियों की तपस्या।
मानो इंद्र की अलका नगरी
सिंहासन हथियाने को लक्षित थी
मोक्ष प्राप्ति के लिए नहीं।
डोल जाते हैं
कन्याओं पर
हमारे ब्रह्मचारी ऋषि-मुनी
रैक्व और अष्टावक्र और च्यवन।
भीष्म करते हैं प्रतिज्ञा
आजीवन अविवाहित रहने की
अपने बूढ़े बाप की कामेच्छा पूरी करने को
अन्याय से लड़ने के लिए नहीं
कौरव सभा में होने देते हैं
चीर हरण।
सांसारिक नहीं हम ब्रह्मलीन हैं
वेद की ऋचाएं आवाहन करती हैं
दैवीय शक्तियों का
धन-धान्य के लिए
सुख-संपन्नता के लिए
गायों और बैलों के लिए
संतति के लिए
युद्धों में विजय के लिए।
हमारे प्रतापी सम्राट करते हैं
अश्वमेध
बढ़ाने को साम्राज्य
घोषणा होती है
वीर भोगे वसुंधरा
त्याग की तथाकथित संस्कृति में
सिर पर चढ़ भोग ही बोलता है
त्याग है ब्रह्मा की तीसरी संतान
मनुष्यों के लिए
हमारे देवता धारण करते हैं
अगणित आभूषण
बिठाए दिखते हैं अपनी रानियों को
सदा अपनी बगल में।
हमारे आदर्श महापुरुष
सर्वस्व लगा देते हैं दांव पर
धन संपदा की तरह
अपनी धर्मपत्नी तक को
गौतम मुनि की पत्नी
शिकार बनती है
भगवान इंद्र की हवस की
और पति के श्राप से
हो जाती है पत्थर
पर देवता बने रहते हैं इंद्र।
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
इतने वर्षों के ज्ञानार्जन के बाद भी चाँद में धब्बे दिखायी दें तो दोष चाँद का ही है।
प्रवीण जी ने सही कहा है मन का आक्रोश शब्दों मे दिखाई दे रहा है। शुभकामनायें।
सुंदर कविता| जय हिंद|
अपने आप को बुद्धिजीवी कहलाने की चाह कविता मे स्पष्ट परिलक्षित हो रही है इसके सिवा कविता मे और कुछ नहीं है. तल्ख़ टिप्पणी के लिए खेद है, किन्तु यदि जिन पात्रों का उद्धरण कविता में है यदि उनके बारे में गहन अध्ययन कवी द्वारा किया जाता तो शायद इस कविता का जन्म नहीं होता, आप शंका समाधान एवं तर्क निवारण के लिए राम कुमार वर्मा भ्रमर जी को पढ़े, आपको लाभ होगा.
विवेक 'अंजान'
जब बात धर्म की आती है तो लोग अक्सर चुप लगा जाते हैं. जो अपने लिखा है ऐसे प्रश्न कई बार मेरे मन में भी आतें है. आपकी कविता मुझे सत्य और सुन्दर लगी. और सबसे अच्छा लगा आपका ऐसे विषय की गहराई में जाकर उसके कटु सत्य से अवगत कराना. हार्दिक शुभकामनायें
नरेन्द्र जी ,
शाबास !
धर्म की आड़ में शादियों से हो रहे खड्यंत्र का खुलासा बेझिझक करके आपने सराहनीय काम किया है.
आश्चर्य यह है कि भारत के साहित्यकार लोग ये कथाएं जान कर भी अनजान बने रहते हैं . दिनकर जी 'तथ्य है कोइ कि केवल आवरण '
कह कर रह गए और तुलसी दास जी 'समरथ के नहीं दोस गोसाई ' कह कर सब को शांत कर दिए .
कविता प्रभावकारी है . बधाई
कमल किशोर सिंह
भावों को अच्छे ढंग से व्यक्त करने के लिए बधाई, कविता सुंदर बन पड़ी है। मगर हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, कवि को जो सत्यम शिवम सुंदरम लगता है उसका न कभी अस्तित्व था न होगा। हर संस्कृति में अच्छाइयाँ बुराइयाँ होती हैं, होती रहेंगी। मगर किसी के एक बुरे कार्य से उसकी सारी अच्छाइयों को ढाँक देना ठीक नहीं, न ही किसी के एक अच्छे कार्य से उसकी बुराइयों को ढाँक देना ही ठीक है। इस कविता में व्यंग्य तो है मगर आशा नहीं है। इसीलिए यह कविता अधूरी है।
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
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