नवंबर माह की तेरहवें स्थान की कविता अनिल जीगर ’फ़राग़’ की है। हिंद-युग्म पर यह उनकी लंबे वक्त के बाद की वापसी है। इससे पहले इनकी पिछली कविता अक्टूबर 2009 पे प्रकाशित हुई थी।
कविता: लकीरें
यूँ ही काट-काट के रात भर
पीस-पीस के लगाया
हथेली पर
बुझती हुई रात का,
जलता हुआ चाँद।
एक टुकड़ा उल्काओं का
गिरा आँगन में तभी
कोई सन्देशा
वहीं लॉन पर छपा पाया
चाँद हथेली से माँगा,
काइनात ने मुझसे
बड़ी मुश्किल से कुरेदा
और लौटा दिया
इसी कोशिश में
चमड़ी भी उतर गई कहीं
कभी पीछे से देखना,
अगर जाओ तुम
मेरी हाथो की लकीरों के कोड़े
चाँद की पीठ पर पड़े हैं।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
aasmani prateekon se saji yah kavita nishchit taur pe bahut sundar hai ...badhai apko
kavita ne dil ko chhua , bas lakeeron ke kode samajh nahin aaye ..kya kavi lakeeron ki maar bataana chahta hai ya fir kuredne se udhdee huee chamdee ki badaulat kuchh bataana chahta hai ...khair marmsparshi hai ..
अद्भुत कल्पना, दर्द का प्रेषण चाँद तक।
... bahut khoob !!
चाँद चांदनी और उफ़ ए मदहोश रात
और इस कविता में सिमटती ये कायनात
बेहतरीन
bahut sundar kavita badhi dost
अतिसुन्दर बिम्ब विधान...वाह !!!
भावों को इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी है आपने कि मन मुग्ध हो गया..
बहुत ही सुन्दर रचना...
कभी पीछे से देखना,
अगर जाओ तुम
मेरी हाथो की लकीरों के कोड़े
चाँद की पीठ पर पड़े हैं।
दिल को छूने वाली पंक्तियां... इन पंक्तियों के लिेए मेरी ओर से हार्दिक बधाई...
- आकर्षण
सुंदर कविता के लिए बधाई
भावमय करते हुये शब्द ।
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