युवा कवि अनिल जींगर ने सितम्बर माह की प्रतियोगिता में अनिल फ़राग के नाम अपनी कविता भेजी है। अनिल जींगर की पहली कविता फरवरी 2008 में प्रकाशित हुई थी। इस बार इनकी कविता ने बारहवाँ स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता- आवाज़ से गिरा नाम
जब कोई दूर रहे और बहुत पास रहे..
नींद सुखी सी रहे और बहुत प्यास रहे..
तुम वही ख्वाब जगाने चले आ जाया करो..
मेरी रातों को चरागों से सज़ा जाया करो..
अश्क गीले से मोती अभी कच्चे हैं
ये ख्वाबों को समझ लेते हैं सच्चे हैं..
तुम वही रस्म निभाने चले आ जाया करो..
मेरी पलकों पे लब अपने सज़ा जाया करो...
दिन को धोया जो बहुत रात भी गीली निकली..
चाँद के होठों पे इक बात थी सीली निकली..
अपनी फूँकों से वो बात सुखा जाया करो..
तन्हा से कुछ ख्वाब पलकों मे दबा जाया करो..
तुम तक ही आते थे मेरी मन्ज़िल के निशान
ये रस्ते न इतने मुश्किल है न इतने आसान..
अपने पैरों के निशान वही दबा जाया करो..
अपनी आवाज़ से नाम मेरा गिरा जाया करो..
तुम वही ख्वाब जगाने चले आ जाया करो..
मेरी रातों को चरागों से सज़ा जाया करो.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
6 कविताप्रेमियों का कहना है :
काफी संतुष्टि प्रदान कर गई यह कविता।
बेहतरीन प्रस्तुति
भाव अच्छा है और कविता भी.
"दिन को धोया जो बहुत रात भी गीली निकली..
चाँद के होठों पे इक बात थी सीली निकली..
अपनी फूँकों से वो बात सुखा जाया करो..
तन्हा से कुछ ख्वाब पलकों मे दबा जाया करो.."
पंक्तियाँ विशेष पसंद आई.
प्रयासरत रहें शुभकामनाएं.
एक एहसास जगाती बड़ी सुंदर कविता...बधाई
अनिल जी बहुत ही बढ़िया लगी आपकी यह कविता. सबसे ज्यादा मुझे जो बात पसंद आई वह है शब्दों की रवानी, बहुत आसन और सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है आपने.
तुम वही ख्वाब जगाने चले आ जाया करो..
मेरी रातों को चरागों से सज़ा जाया करो.
एक बारगी तो मुझे अहमद फ़राज़ साहब की मशहूर नज़्म का यह श'र ध्यान आ गया आपकी कविता का यह (तुम वही रस्म निभाने चले आ जाया करो..
मेरी पलकों पे लब अपने सज़ा जाया करो...) पद्यांश पढ़कर.
पहल से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ -रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)