आज हम तीसरी कविता लेकर उपस्थित हैं और बहुत खुशी की बात है कि इस स्थान पर बिलकुल नया सितारा झिलमिला रहा है। अब दुनिया भर के नये रचनाकारों को बेहतर लेखन की ओर अग्रसर कर पा रहे हैं।
१९ मई १९८३ को जन्मे कवि अनिल कुमार जींगर 'अनिल साहिल' ने M.L.V.Textile and Engg. college, Bhilwara (Rajasthan ).. से बी॰टेक॰ की पढ़ाई करने के बाद V.J.T.I. Mumbai में एम॰टेक॰ (टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी) में प्रवेश लिया। आजकल ग़ालिब, मीर और निदा फ़ाजली को पढ़ रहे हैं और गुलज़ार के दीवाने हैं। बशीर बद्र, कुँवर बेचेन को भी इन्होंने अपनी कविताएँ सुनाई है, उन्होंने कवि से कहा कि लिखना छोड़ना मत ज़ारी रखना। इनके पिता श्री जींगे दुर्गा शंकर गहलोत जी साहित्य में बहुत रुचि रखते हैं और वो दुष्यंत कुमार और कमलेश्वर के दीवाने हैं। पाँच साल पहले कवि और इनके परिवार वालों ने पाक्षिक समाचार पत्रिका 'समाचार सफ़र' की नींव रखी। इसमें साहित्य को भी पूरा स्थान देते हैं।
पुरस्कृत कविता- ख़त साँस लेते हैं
मेज की दराज़ में पड़े कुछ खत
सांस लेते हैं
लगता है ज़िन्दा हैं..
कलम को कितना कस के पकड़ा था तुमने
हथेली कितना घिसी होगी कागज़ पर
गीली मेंहदी और भी महकती जाती है
तेरे हाथों की महक अब भी इनसे आती है
ये खत तुम्हारे अब भी सांस लेते हैं
हाँ से उलझ कर एक नज़्म पिरो दी थी जिस खत में
वो नज़्म मैं हर रोज़ जीता हूँ
जब भी सांस लेता हूँ
वो नज़्म सांस लेती है
तुम्हारे खत अब भी सांस लेते हैं
हजारों रंग टिमटिमाते हैं दराज़ में अक्सर
भला कोई कागज़ों में हीरे रखता है
कैसे सारे जेवर पिरो दिये थे तुमने
ये जेवर अब भी खनक उठते हैं दराज़ में अक्सर
ये जेवर सांस लेते हैं
ये तुम्हारे खत अब भी सांस लेते हैं
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक-६॰५, ७॰३, ७॰१
औसत अंक- ६॰९६६७
स्थान- दूसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ७॰२, ५, ६॰९६६७(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२९१६६
स्थान- तीसरा
अंतिम जज की टिप्पणी-
बेहतरीन रचना। खूबसूरत बिम्बों से सजी, जो किसी के भी कोमल मनोभावों को कुरेद सकती है।
कला पक्ष: ८/१०
भाव पक्ष: ८॰५/१०
कुल योग: १६॰५/२०
पुरस्कार- सूरज प्रकाश द्वारा संपादित पुस्तक कथा-दशक'
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब अनिल जी
आपने जो टाइटल दिया पसंद आया
ख़त भी साँस लेते है
कलम को कितना कस के पकड़ा था तुमने
हथेली कितना घिसी होगी कागज़ पर
गीली मेंहदी और भी महकती जाती है
तेरे हाथों की महक अब भी इनसे आती है
ये खत तुम्हारे अब भी सांस लेते हैं
यह पंक्तियाँ याद दिलाती है पुरानी यादें को ताज़ा कर रही है अंदाज़ आपका पसंद आया
आपको बहुत बहुत बधाई
हाँ से उलझ कर एक नज़्म पिरो दी थी जिस खत में
वो नज़्म मैं हर रोज़ जीता हूँ
जब भी सांस लेता हूँ
वो नज़्म सांस लेती है
तुम्हारे खत अब भी सांस लेते हैं
बहुत khub जिगर जी,badhai हो
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत खूब। अच्छी रचना की सबसे पहली पहचान है शीर्षक का रोचक और नया होना। आपकी शुरूआत ही लाजवाब है। प्रथम पुरस्कार उसकी निशानी है। बधाई।
हजारों रंग टिमटिमाते हैं दराज़ में अक्सर
भला कोई कागज़ों में हीरे रखता है
कैसे सारे जेवर पिरो दिये थे तुमने
ये जेवर अब भी खनक उठते हैं दराज़ में अक्सर
ये जेवर सांस लेते हैं
ये तुम्हारे खत अब भी सांस लेते हैं
" वाह आती सुंदर , खत अब भी सांस लेते हैं, बहुत खूब , क्या शब्द हैं, "
Regards
हजारों रंग टिमटिमाते हैं दराज़ में अक्सर
भला कोई कागज़ों में हीरे रखता है
एक साँस में पढ गया। बेहतरीन रचना..अपार संभावनायें हैं इस कवि में।
*** राजीव रंजन प्रसाद
कलम को कितना कस के पकड़ा था तुमने
हथेली कितना घिसी होगी कागज़ पर
गीली मेंहदी और भी महकती जाती है
तेरे हाथों की महक अब भी इनसे आती है
ये खत तुम्हारे अब भी सांस लेते हैं
खत की साँसों की आवाज सुनाई दे रहे है अनिल जी बहुत बढिया
बहुत ही सुंदर ,ख़त का saans lena बहुत बधाई
खत भी साँस लेते हैं। अद्भुत सोच व पंक्तियाँ।
बधाई।
अनिल जी
कमाल की सोच.."ख़त साँस लेते हैं"
बहुत खूब , सुंदर रचना
कलम को कितना कस के पकड़ा था तुमने
हथेली कितना घिसी होगी कागज़ पर
गीली मेंहदी और भी महकती जाती है
तेरे हाथों की महक अब भी इनसे आती है
ये खत तुम्हारे अब भी सांस लेते हैं
khoobsurat dhang se khoobsoorat aur geheri baat kahi gai hai.
अनिल जी,
आपकी रचना शीर्ष तीन में आई और आप इसके हकदार भी हैं।हरेक शब्द एक नया अनुभव, एक नया बिंब प्रस्तुत करता है।
बधाई स्वीकारें।
अनिल जी! किसी भी रचना को यदि एक बार पढ़ने के बाद भी पाठक दोबारा पढ़ने का तलबगार रहे तो उस रचना की सफलता में संदेह हो ही नहीं सकता. यही बात आपकी इस रचना के बारे में भी कही जा सकती है.
कविता की गति और बिम्ब-विधान दोनों उत्कृष्ट हैं.
khat saans lete hain...anil....bahut khoob likha hai...badhai sweekar karein...
एक और लाजवाब रचना..... वाह ऐसी हो प्रतियोगिता तो कविता अपने चरम को छूने लगे...
अनिल जी, बहुत प्यारी रचना। आपकी और रचनाओं का इंतज़ार रहेगा।
ANIL BABU ..........
WAH MAZZA AA GAYA ....
AISHA LAGTA HAI KI AAPKI KAVITA SUNKAR TO HAR KOI SANS LENA SIKH JAYEGA....
ONCE AGAIN WAH WAH
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