धर्मेंद्र कुमार सिंह पिछले तीन माह से हिंद-युग्म से जुड़े हैं और हर माह की प्रतियोगिता मे अपनी प्रभावी उपस्थित दर्ज करा रहे हैं। पिछले माह मे इनकी एक कविता सातवें स्थान पर रही थी। नवंबर माह मे इनके दस हाइकु कुछ वाजिब सवालों के बहाने बदलते वक्त्त की नब्ज पकड़ने की कोशिश करते हैं। हाइकु-विधा की यह लंबे समय के बाद हिंद-युग्म पर दस्तक है। पहले प्रकाशित गिरिराज जोशी के हाइकु भी आप यहाँ पढ़ सकते हैं। धर्मेंद्र जी की रचना को इस माह नवाँ स्थान मिला है।
पुरस्कृत रचना: दस हाइकु
मंत्र-मानव
प्रगति कर बना
यंत्र-मानव
नया जमाना
कैसे जिए ईश्वर
वही पुराना
ढूँढे ना मिली
खो गई है कविता
शब्दों की गली
बात अजीब
सेवक हैं अमीर
लोग गरीब
फलों का भोग
भूखों मरे ईश्वर
खाएँ बंदर
क्या उत्तर दें
राम कृष्ण से बन
सीता राधा को
पहाड़ उठे
खाई की गर्दन पे
पाँव रखके
माँ का आँचल
है कष्टों की घूप में
नन्हा बादल
आँखें हैं झील
पलकें जमीं बर्फ
मछली सा मैं
हवा में आके
समझा मछली ने
पानी का मोल
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
बात अजीब..........सेवक हैं अमीर.........लोग गरीब......................यह हाइकु आपके अंदर के वैचारिक व्यक्ति का परिचय दे रही है|
क्या उत्तर दें...........राम कृष्ण से बन.............सीता राधा को............... इस हाइकु ने आपकी आँचलिकता को खोल के रख दिया...अब कैसे छुपोगे?
पहाड़ उठे...........खाई की गर्दन पे..............पाँव रखके.................. शायद आप यहाँ कंक्रिट जंगल की तरफ इशारा कर रहे हैं! अगर ग़लत हो तो प्लीज़ सही इशारा बताएँ|
इन तीन हाइकुस ने बहुत ज़्यादा प्रभावित किया, बधाई मित्र| हालाँकि प्रतियोगिता के अपने नियम होते हैं, पर मेरे लिए ये आपकी दूसरी और तीसरी हाइकुस - सर्वोत्तम प्रस्तुति रही अब तक की इस प्रतियोगिता की|
पहाड़ वाले हाइकू से मेरा इशारा इस कविता की तरफ़ था नवीन जी
अबे सुन बे गुलाब
गर पाई तूने शक्लो सूरत रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा केपीटलिस्ट
सब के सब चिन्तन का निचोड़, गागर में सागर भरने जैसा।
... bahut sundar !!!
"पहाड़ उठे
खाई की गर्दन पे
पाँव रखके" अति सुन्दर कृति ...बहुत बहुत साधुवाद!
नया जमाना
कैसे जिए ईश्वर
वही पुराना
bahut gahri baat kahi aapne
पहाड़ उठे
खाई की गर्दन पे
पाँव रखके
kya soch hai uttam .
ढूँढे ना मिली
खो गई है कविता
शब्दों की गली
sach kaha hai aap ne
kis kis ke bare me likhun sabhi ek se badh ke ek hain
saader
rachana
बेहतरीन .......।
प्रगति का सार इतने में कह दिया आपने...
हवा में आके
समझा मछली ने
पानी का मोल
बेजोड़ रचना...मन मोह गयी...किन शब्दों में प्रशंसा करूँ,कुछ सूझ नहीं रहा...
बहुर खूब .धन्यवाद्
.
सामाजिक सरोकार से जुड़ के सार्थक ब्लोगिंग किसे कहते
नहीं निरपेक्ष हम जात से पात से भात से फिर क्यों निरपेक्ष हम धर्मं से..अरुण चन्द्र रॉय
pahaad uthhe ....jaise shahar uthhe slams ki gardan par paanv rakhkar .
veerubhai .
sundar bhaav jagat aapkaa hoozoor .
veerubhai .
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