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Tuesday, November 23, 2010

कंकरीट के जंगल में


प्रतियोगिता की सातवीं कविता धर्मेंद्र कुमार सिंह की है। धर्मेंद्र जी की हिंद-युग्म पर यह दूसरी प्रकाशित कविता है। इससे पहले सितंबर माह मे इनकी कविता ’कवि और अधिकारी’ आठवें स्थान पर रही थी। प्रस्तुत कविता शहरीकरण के साथ समाज मे कृत्रिमता के प्रति बढ़ती स्वीकार्यता की ओर इशारा करती है।

पुरस्कृत कविता: कंकरीट के जंगल में

कंकरीट के जंगल में
उगते प्लास्टिक के पेड़।

हरे रंग हैं, भरे अंग हैं,
नकली फल भी संग-संग हैं;
इनके हैं अंदाज अनूठे,
हमसे इनको देख दंग हैं;
मृत हरियाली की तस्वीरों
से लगते ये पेड़।

बिना खाद के बिन मिट्टी के
बिन पानी के हरे भरे हैं,
सूर्य रश्मि बिन, खुली हवा बिन
भी सुगंध से तरे तरे हैं;
सब कुछ है पर एक अदद
आत्मा विहीन ये पेड़।

रोज सुबह ही सुबह रसायन से
मल मल कर धोए जाते,
चमक दमक जो भी दिखती है
उसे रसायन से हैं पाते,
चमक रहे बाहर से,
अंदर-अंदर सड़ते पेड़।

भूल गए मौसम परिवर्तन
वातानुकुलित कमरों में ये,
खुद कटकर इक बेघर को घर
देने का भी सुख भूले ये,
केवल कमरों में सजने को
ही जिन्दा ये पेड़ ।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

“भूल गए मौसम परिवर्तन
वातानुकुलित कमरों में ये,
खुद कटकर इक बेघर को घर
देने का भी सुख भूले ये,
केवल कमरों में सजने को
ही जिन्दा ये पेड़ ।“ ये पेड़ तो मृत प्राय ही हैं फिर अंत में आपने इन्हें जिन्दा भी कर दिया. सजावटी सामान तो असल की नक़ल ही होता है अतः ये किसी को क्या सुख देंगे ? कविता की संकल्पना शानदार है. अश्विनी रॉय

वाणी गीत का कहना है कि -

बिना खाद के बिन मिट्टी के
बिन पानी के हरे भरे हैं,
सूर्य रश्मि बिन, खुली हवा बिन
भी सुगंध से तरे तरे हैं;
सब कुछ है पर एक अदद
आत्मा विहीन ये पेड़....

इस तरह पालने वाले आत्माविहीन ही तो होंगे ...पेड हों या मनुष्य ...!

M VERMA का कहना है कि -

“भूल गए मौसम परिवर्तन
वातानुकुलित कमरों में ये,
इनके साथ हम भी शायद भूलते जा रहे हैं मौसम परिवर्तन. प्रकृति के नैसर्गिक स्वरूप के बिना हम आत्मा विहीन ही हैं

सुन्दर रचना

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

कविता पसंद करने के लिए, आप सभी का धन्यवाद।

Anonymous का कहना है कि -

यह एक अच्छी कविता है। आज पर्यावरण की जो स्थिति है, वह भविष्य में और कैसी होने जा रही है, यही कहता है कवि। शायद जल्दी ही हमें वह दिन देखने को मिले जब हम इसी तरह के पेड़ों की चाया में रहेंगे। अगर हम ऐसा नहीम चाहते हैं तो हमें पर्यावरण की सुरक्षा की ओर ध्यान देना होगा।
अनिल जनविजय

गोप का कहना है कि -

अपुन ये नहीं समझ पाए कि इस कविता को सातवाँ पुरस्कार क्यों मिला है, यह तो पहले पुरस्कार के लायक है।

सदा का कहना है कि -

भूल गए मौसम परिवर्तन
वातानुकुलित कमरों में ये,

बहुत ही सुन्‍दर पंक्तियां ।

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