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प्रतियोगिता की आठवें स्थान की कविता के रचनाकार के रूप मे हम धर्मेन्द्र कुमार सिंह ’सज्जन’ का परिचय अपने पाठकों से करा रहे हैं। धर्मेंद्र सिंह का जन्म 22 सितंबर 1979 को प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) मे हुआ। इनकी शिक्षा प्रौद्योगिकी स्नातक (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय), प्रौद्योगिकी परास्नातक (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की) तक हुई है। अभी एनटीपीसी लिमिटेड, कोलडैम, बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश में वरिष्ठ अभियन्ता (सिविल निर्माण विभाग - बाँध) के पद पर कार्यरत हैं। तीन पुस्तकें “‘सज्जन’ की मधुशाला”, “गीत विद्रोही” और “मेरी कल्पनाएँ”, पोथी डॉट कॉम पर प्रकाशित हैं और अनुभूति हिन्दी में कई नवगीत प्रकाशित हुए हैं। सज्जन जी साथ मे कविता कोश कार्यकारिणी टीम के सदस्य हैं एवं कविता कोश में लगभग ४२०० पन्नों का योगदान किया है। इनकी यह हिंद-युग्म पर प्रथम कविता है।
पुरस्कृत कविता: कवि और अधिकारी
कवि तड़प उठता है,
सड़क पर भीख माँगते अनाथ बच्चे को देखकर;
उसके आँसू निकल आते हैं,
किसी अन्धे को अकेले,
सड़क पार करने की कोशिश करते देखकर;
उसके भीतर कविता उमड़ती है,
आग सी लग जाती है,
देश में बढ़ते भ्रष्टाचार को देखकर;
कवि चाय की दूकान से,
दो रूपये की चाय पीता है;
वहीं बगल के चापाकल से पानी पी लेता है,
दस रूपये का कढ़ी चावल खाकर भी पेट भर लेता है;
भूख से मरते गरीब और गोदामों में सड़ते हुए अनाज,
के विरुद्ध प्रदर्शन करता है,
धरना देता है,
अखबारों में लिखता है।
अधिकारी बरिस्ता की दो सौ रूपये की कॉफ़ी पीता है,
वो बड़ी बड़ी बैठकों में शामिल होता है,
जहाँ देश का पैसा गंदे चुटकुले सुनकर,
और सुनाकर,
बर्बाद करता है;
अधिकारी भ्रष्टाचार करने के नए नए तरीके खोजता है,
और फिर उन्हें अमल में लाता है;
बड़ी बड़ी पार्टियों में हराम की खाता है,
और जो नहीं खा पाता उसे बर्बाद करता है;
बोतलबंद पानी पीता है,
मँहगी से मँहगी शराब पीता है;
इन दोनों आत्माओं में ये अलग अलग गुण होना,
अचरज की बात नहीं है;
आश्चर्य तो इस बात का है,
कि ये दोनों आत्माएँ अक्सर,
एक ही आदमी के भीतर रह लेती हैं,
बिना कोई संघर्ष किए,
पूरे सुख और चैन के साथ।
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
..हाँ, यही तो आश्चर्य है कि आदमी इतनी आसानी से दोहरी जिंदगी कैसे जी लेता है !
..दोनो का यह समझौता औरों के लिए घातक तो नहीं ?
धर्मेश जी ने आदमी के दोहरे व्यक्तित्व का चित्रण बहुत अच्छे शब्दों मे किया है। समसामयिक समस्या पर बहुत अच्छी अभिव्यक्ति। बधाई।
वाह अति सुन्दर...सुन्दर..सच्चाई से रुबरु कराती रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई!!
चरित्र के दोहरेपन को,विसंगतियों को , बहुत ही प्रभावशाली और सार्थक ढंग से आपने शब्दों में उकेरा है...
झकझोरती,सोचने को विवश करती अतिसुन्दर रचना !!!
टिप्पणी के रूप में मेरी ग़ज़ल का एक शेर पेश है-
जान लोगे लोग जीते किस तरह हैं
इक मुखौटा तो लगाएं आप भी।
samyik vishay par bahut hee sunadr prstuti...badhai
“इन दोनों आत्माओं में ये अलग अलग गुण होना,
अचरज की बात नहीं है;
आश्चर्य तो इस बात का है,
कि ये दोनों आत्माएँ अक्सर,
एक ही आदमी के भीतर रह लेती हैं,
बिना कोई संघर्ष किए,
पूरे सुख और चैन के साथ।“ अंतर्द्वंद भावों का अत्यंत गहरा चिंतन परिलक्षित होता है आपकी इस सुन्दर कविता में. मुझे तो इस बात का भी आश्चर्य होता है कि सामने भूखे मरते हुए किसी व्यक्ति को देखते हुए कोई स्वयं खाना कैसे खा लेता है. आपकी वेदना इस कविता में पूरी तरह महसूस की जा सकती है. इस सुन्दर कविता के लिए आपको साधुवाद. अश्विनी रॉय
मेरी इस कविता को अपना बहुमूल्य समय और इतनी उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ देने के लिए आप सब का धन्यवाद|
प्रिय भाई धर्मेन्द्र जी,
आपकी यह पूरी कविता मुख्यतः ‘अभिधा’ की बाँह थामकर चली है। जिन पंक्तियों ने इसे ऊँचाई दी, वे निम्नवत् हैं:
आश्चर्य तो इस बात का है,
कि ये दोनों आत्माएँ अक्सर,
एक ही आदमी के भीतर रह लेती हैं,
बिना कोई संघर्ष किए,
पूरे सुख और चैन के साथ।
दूसरा बिन्दु जो इसे ख़ास बनाता है, वह यह कि आपने एक बड़ी विसंगति या यूँ कहें कि व्यक्तित्त्व के दोहरेपन को पकड़ा है, इस कविता में।
इन दोनों आत्माओं में ये अलग अलग गुण होना,
अचरज की बात नहीं है;
आश्चर्य तो इस बात का है,
कि ये दोनों आत्माएँ अक्सर,
एक ही आदमी के भीतर रह लेती हैं,
बिना कोई संघर्ष किए,
पूरे सुख और चैन के साथ।
कविता बहुत अच्छी लगी
सुमित भारद्वाज
आश्चर्य तो इस बात का है,
कि ये दोनों आत्माएँ अक्सर,
एक ही आदमी के भीतर रह लेती हैं,
बिना कोई संघर्ष किए,
पूरे सुख और चैन के साथ।
बहुत ही गहन विचारवान पंक्तियां ....इस सशक्त अभिव्यक्ति के लिये बधाई ।
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