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Sunday, November 28, 2010

रहस्यमयी प्रेम कथाओं वाले मित्र


अक्टूबर माह की आठवीं कविता आरसी चौहान की है। इससे पहले इनकी एक कविता सितंबर माह मे दूसरे स्थान पर रही थी।

पुरस्कृत कविता: रहस्यमयी प्रेम कथाओं वाले मित्र

हो सकता
कुछ चीजें लौटती नहीं जाकर वापस
पर बहुत सारी चीजें लौटती हैं
दिमाग में
जैसे- बचपन की धमाचौकड़ी
प्यार का पहला दिन, पिता का गुज़रना
और भी बहुत कुछ
बार-बार खुलती हैं स्मृति की किताबें
फड़फड़ाते हैं पन्ने
और उसमें दर्ज सारी कहानियां
अक्षरशः उग आती आंखों के सामने
और लहलहाने लगती
सपनों की फसल।

याद है जब पढ़ते थे मिडिल में
अधिकांशतः छोटे भलेमानुष
था एक लड़का प्रेम का जादूगर
दोपहर की छुटिटयों में बताता
लड़कियों के शरीर में आये उभार का रहस्य
कई-कई तरह की रहस्यमयी कथाएं
और हम विस्मित!
तो शुरू करते हैं पहली कथा से
एक था लड़का
बिल्कुल ललगड़िया बानर-सा
जो लड़को में बनरा के नाम से प्रसिद्ध
मुंह भी निपोरता वैसे ही
हम जिज्ञासावश पूछते खोद-खोद
वह बताता रस भरी बातें और कथा को
दूसरी ओर घुमाने का माहिर या यूं कहें प्यार की गाड़ी का अच्छा
ड्राइवर था वह
एक कथा से दूसरी कथा में घुसने का महारथी
महिनों तक घूमती रहती उसकी एक-एक कथा

फिर तो एक दिन उसको घेर कर हमने
सुनी एक और रस भरी दास्तान
कथा में एक थी लड़की और उसे
फंसाने की अनूठी तरकीब
अट्ठारह पोरों वाली दूब को जलाकर
उसकी भस्म अगर छिड़क दी जाए तो
खिंची चली आएगी तुम्हारे मनमाफिक
फिर मन में फूटते बुलबुले
चुनते अपने-अपने हिसाब से
क्लास की लड़कियां
और ढूंढते अट्ठारह पोरों वाली दूब
दूब भी ऐसी कि मिलती उससे
एक कम या एक अधिक पोरों वाली
महिनों तक घास में खोजते दूब और
दूब में अट्ठारह पोर
अट्ठारह पोरों की भस्म
भस्म से फंसी लड़की
लड़की का रहस्यमयी शरीर
एक अनछुआ एहसास
एक अनछुई गुदगुदी
और गर्म रगों में दौड़ती सनसनी
फिर हार-पाछ कर जाते उसकी शरण में
किसी अचूक नुस्खे की करते फरमाइश

धीरे-धीरे साल कैसे बीता
परीक्षा कैसे हुई सम्पन्न
सभी हुए कैसे पास
इसका पता ही न चला
वह आया था हम लोगों की जिन्दगी में
रहस्यों से भरा सिर्फ एक साल
आगे की पढ़ाई मे बिखरे इधर-उधर
बमुश्किल एकाध-साथी ही रह पाये साथ
पता चला वह चला गया पढ़ने बनारस
अब इन सारी चीजों से बेखबर
चलती रही पढ़ाई
मिलते रहे नये पुराने दोस्त
किसी ने पकड़ ली नौकरी
किसी ने खेती
किसी ने राजनीति की पूंछ
तो किसी ने हर गोल पाइप में तलाशना शुरू किया
कट्‌टा और बंदूक
मैं भी गाँव छोड़कर गया गोरखपुर
मऊ, बनारस, इलाहाबाद और
नौकरी लगते ही टिहरी
जहां एशिया का सबसे बड़ा कच्चा बांध
जिससे निकलती है चमचमाती बिजली
एक बार फिर चमकी मेरी आंखों में
बिजली

यहां वह मिडिल में पढ़ने वाला मित्र नहीं
बल्कि मिडिल में पढ़ाने वाला मित्र मिला
जो पहाड़ों में आया था अपनी
जवानी के दिनों में
छोड़ कर दुनियां का सारा तिलिस्म
उसे नहीं मालूम थी हॉलीवुड फिल्मों की
सिने तारिकाओं की प्रेम कहानियां या
ठंडे प्रदेशों में खुलेआम
प्रेम प्रसंगों में डूबे लोगों का रहस्य
वह जब भी मिलता आग्रह करता
देखने को वैसी ही फिल्में
जिसके आगे पानी भरती थी अप्सराएं
अब हमारे उसके बीच
कोई उम्र की सीमा नहीं थी
वह था तो मेरे बाप की उमर का
लेकिन इस उम्र में फूटने लगे थे
जवानी के कल्ले,
हम युवा मित्रों के बीच
आने लगा बाल रंगाकर
जैसे कोई सांड सींग कटा कर
घुमता हो बछड़ों में
हम सबकी बातें सुनता गौर से
पैदा हुए नए सूर-कबीरों के दोहों पर
खिलखिलाता खूब और करता पैरवी
कि शामिल होने चाहिए ये दोहे
’सेक्स एजुकेशन’ की किताबों में
हम मुस्कुराते और पीटते अपना सिर
वह भरता आहें और कहता
हमने नाहक गुजार दी अपनी
जिन्दगी के अड़तालीस साल
सहलाता अपना चेहरा जैसा
 बन चुका चिकना सिर
और सिर के पिछले हिस्से में
कौवे के घोंसले की तरह उलझे बालों में
फिराता अपनी अंगुलियाँ

एक दिन उसकी अनुपस्थिति में
उसकी प्रेम कहानी का हुआ यूँ लोकार्पण
कि वह आया था बीस-बाईस की उम्र में
छोड़ कर अपना भरा-पूरा परिवार
और आया तो यहीं का होकर रह गया
उसे ऐसा लगा कि यहां के लोग
हमसे जी रहे हैं सौ साल पीछे
फिर तो यहां की आबो-हवा ने पहले तो
उसका दिल जीता
नदी, पहाड झरने
सबके सब उतरते चले गये
दिल में उसके
सिर्फ उतरी नहीं थी तो एक पहाड़ी
औरत
जो उसी स्कूल में पढ़ाती थी हमउम्र
उसने किया अथक प्रयास और
फिसला तो फिसलता ही गया
पहाड़ी ढलानों पर बिछे चीड़ के पत्तों पर
ढूंगों की तरह
जहां स्वयं को भी नहीं देख पा
रहा था वह
फिर तो उसके भीतर प्रेम का पहला बीज
अंखुआने से पहले ही लरज गया
और अब महसूसता हूँ
कि इन्हीं उठापटक के बीच
चलता है जीवन
ढ़हते- ढिमलाते बनते हैं रिश्ते
और इन्हीं रिश्तों के जंगलों में
लौटता है जीवन
बसता है घर
फुदकती हैं चिड़ियाँ
और ठंडी बयार चलने लगती है एक बार फिर।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

इस निरर्थक रचना पर क्या टिप्पणी दें? ऐसा प्रतीत होता है कि या तो हिंद युग्म को अच्छी कवितायें मिलने में कठिनाई आ रही है या फिर हमारे सम्मानीय निर्णायकों की पसंद में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया है. पूरी कविता को पढ़ कर लगा कि व्यर्थ ही समय नष्ट किया इसे पढ़ने में. यह टिप्पणी भी इसलिए करनी आवश्यक हो गई ताकि भविष्य में अच्छी रचनाएँ ही पढ़ने को मिलें.

सदा का कहना है कि -

अक्षरशः उग आती आंखों के सामने
और लहलहाने लगती
सपनों की फसल।

बेहतरीन शब्‍द रचना ।

डॉ० अनिल चड्डा का कहना है कि -

पता नहीं क्यों कुछ लोग छुप कर ही वार करते हैं । अरे भई, यदि स्वयँ कुछ सार्थक नहीं कर सकते तो दूसरों के प्रयास को क्यों नकारते हो । इसे ही कहते हैं कि कोई व्यक्ति नेगेटिव होता है जन्मजात से ही । परन्तू उस में इतना जिगरा नहीं होता कि वह खुल कर सामने आ सके । एक कवि के अच्छे-भले प्रयास को न जाने क्यों अनानिमसजी ने इस तरह नकार दिया । कवि का प्रयास एव विचार सराहने योग्य है ।

Anonymous का कहना है कि -

अनिल जी, वैसे नाम के जानने में रखा ही क्या है? अब आपने अपना नाम बता भी दिया तो क्या फर्क पड़ता है? आपके और मेरे नाम के न जाने कितने लोग होंगे इस देश में ! इस में छुप कर वार करने वाली बात मैं तो समझ नहीं पाया. आखिर हम वार भी क्यों करें? क्या हमें आपस में कुछ बांटना है? या कोई कटुता है? अगर नहीं तो मन-मुटाव कैसा? तो क्या आपको यह कविता अच्छी लगी? और यदि अच्छी लगी भी है तो बताने में संकोच क्यों है? क्या अच्छा लगा इसमें? क्या आपको भी “कथा में एक थी लड़की और उसे फंसाने की अनूठी तरकीब” पसंद आई? या फिर ये पंक्तियाँ आपको भा गई “अट्ठारह पोरों की भस्म
भस्म से फंसी लड़की
लड़की का रहस्यमयी शरीर
एक अनछुआ एहसास
एक अनछुई गुदगुदी
और गर्म रगों में दौड़ती सनसनी”
या फिर इस मित्र की अदाएं आपको अच्छी लग गई---
“वह जब भी मिलता आग्रह करता
देखने को वैसी ही फिल्में
जिसके आगे पानी भरती थी अप्सराएं
अब हमारे उसके बीच
कोई उम्र की सीमा नहीं थी
वह था तो मेरे बाप की उमर का
लेकिन इस उम्र में फूटने लगे थे
जवानी के कल्ले,”
यदि मैं आपको अपना नाम बता भी दूं तो क्या यह मेरी टिप्पणी बदल जायेगी? अगर नहीं तो फिर नाम बताने से सिवाय वैमनस्य बढ़े और तो कुछ हासिल होता नहीं दिखाई देता. यह मेरी पहली टिप्पणी नहीं है हिंद युग्म पर. मैंने ९० प्रतिशत से भी अधिक कविताओं की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है. लेकिन जहां आवश्यक हो आलोचना भी करनी ही पड़ती है. मेरा एक सुझाव है आपके लिए यदि बुरा न मानो तो ! यह कविता पढ़ कर आप अपने परिवार के सभी सदस्यों को सुनाएँ और फिर यहाँ पर अपनी टिप्पणी दें कि इस Anonymous की टिप्पणी सार्थक है या नही. हाँ एक बात और ...न तो मैं आपके विषय में कुछ जानता हूँ और न ही इन कवि महोदय के बारे में जिन्होंने ये कविता लिखी है. मैंने तो इस कविता पर पूर्ण इमानदारी से अपनी राय दी है. यह कोई आवश्यक नही है कि सब लोग मेरी बात से सहमत हो ही जाएँ.

सोत्ती का कहना है कि -

भारत मे विरोध करने वाले कम हैं इसलिए यहाँ भ्रष्टाचार बेईमानी अश्लीलता राज कर रही है। अच्छे कामो की सराहना हो चाहे न हो पर बुरे कामो का विरोध करने वालो का विरोध अवश्य किया जाएगा। गुणवत्ता मे गिरावट आती रही और हम मूक दर्शक बने रहे इसी का नतीजा है कि हमारी फिल्मो और गीत संगीत का इतना पतन हुआ|
इस कविता की पाँच पंक्तियाँ मुझे आभास हो गया था कि ये कविता मुझे पसंद नही आएगी सो मैने कविता पढ़ने से पहले टिप्पणी पढ़ने का मन बनाया और प्रथम टिप्पणी इतनी सार्थक है कि मुझे अपने निर्णय पर गर्व महसूस हुआ और मेरा आभास विश्वास मे परिवर्तित हो गया। प्रथम टिप्पणी करने वाले श्रीमान को मेरा हार्दिक धन्यवाद

vikas singh का कहना है कि -

kavi ki kalpana kabil-a-tariff hai.... kavita ek tarah se mitrwat(friendly) mehsus hoti hai ......

ER.ALOK का कहना है कि -

i appriciate that poem. mujhe bhut acha laga kavita padh k. kavi ne hamare jeevan k us riste ko chuna jo ki hum khud banate hai.............. '''wah ati sundar;;;;;

DR.NIRDESH JADAUN का कहना है कि -

BHUT ACHA LAGA PADH K. SABDO KA CHUNAW BEHTREEN HAI........

www.puravai.blogspot.com का कहना है कि -

कविता पढने के लिए कविता प्रेमियों को धन्यवाद
इस कविता पर अष्लीलता का आरोप लगाने वाले कृपया अपनी आंखों से अष्लीलता का चष्मा उतार कर षांति मन से पढें व उन किषोरों की मनः स्थितियों को समझने का प्रयास करें। जिनके मन में विभिन्न तरह की कल्पनाएं जन्म लेती हैं। अगर आप की तरह सोच वाले लोग रहें तो न आज खजुराहो की मूर्तियां देखने को मिलती न वात्स्यायन का कामसूत्र पढने को। और अन्त में बकौल तुलसी दास -जिनकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

Anonymous का कहना है कि -

I agree fully with the Anonymous comments. If Mr Chauhan feels that Kaamsutra and Khajuraho's idols are his true ideals then he should keep that book in his house and refer the same to all the family members. I wonder how the writer finds relevance of this poem with god's picture. If Hindyugm agree with the comments of this writer then this Hindi portal should also start a series of Kaamsutra for its readers shortly.

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