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Tuesday, October 19, 2010

बेदखल किसान


   सितंबर माह की दूसरे स्थान की कविता आरसी चौहान की है। हिंद-युग्म पर यह उनकी पहली ही कविता है।
   मार्च 1979 को बलिया (उत्तर प्रदेश) मे जन्मे आरसी जी ने हिंदी साहित्य और भूगोल से परास्नातक और पत्रकारिता का डिप्लोमा प्राप्त किया है। साहित्यानुरागी आरसी जी की गीत, कथा व लेख आदि लिखने मे विशेष रुचि रही है और इनकी रचनाएं देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित होती रही हैं। कुछ रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी पर भी हुआ है। इसके अतिरिक्त इन्होने कुछ शैक्षिक पाठ्यपुस्तकों का लेखन भी किया है। वर्तमान मे टिहरी-गढ़वाल मे भूगोल के प्रवक्ता हैं।
सम्पर्क: चरौवाँ, बलिया, उत्तर प्रदेश, पिन-221718
 दूरभाष: 9452228335

पुरस्कृत कविता: बेदखल किसान

वो अलग बात है
बहुत दिन हो गये उसे किसानी छोड़े
फिर भी याद आती है
लहलहाते खेतों में
गेहूं की लटकती बालियां
चने के खेत में
गड़ा रावण का बिजूखा
ऊख तोड़कर भागते
शरारती बच्चों का हूजुम
मटर के पौधों में
तितलियों की तरह, चिपके फूल
याद आती है
अब भी शाम को खलिहान में
इकट्‌ठे गाँव के
युवा, प्रौढ़ व बुजुर्ग लोगों से
सजी चौपाल
ठहाकों के साथ
तम्बू सा तने आसमान में
आल्हा की गुँजती हुई तानें
हवा के गिरेबान में पसरती हुई
चैता-कजरी की धुनें
खेतों की कटाई में टिडि्‌डयों सी
उमड़ी हुई
छोटे बच्चों की जमात
जो लपक लेते थे
गिरती हुई गेहूँ की बालियाँ
चुभकर भी इनकी खूँटिया
नहीं देती थी
आभास चुभने का
लेकिन ये बच्चे
अब जवान हो गये हैं
दिल्ली व मुंबई के आसमान तले
नहीं बीनने जाते गेहूँ की बालियाँ
अब यहीं के होकर रह गये हैं
या बस गये हैं
इन महानगरों के किनारे
कूड़े कबाडों के बागवान में
इनकी बीवियां सेंक देतीं हैं रोटियां
जलती हुई आग पर
और पीसकर चटनी ही परोस देतीं हैं
अशुद्ध जल में
घोलकर पसीना
सन्नाटे में ठंडी बयार के चलते ही
सहम जाते हैं लोग
कि गाँव के किसी जमींदार का
आगमन तो नहीं हो रहा है
जिसने नहीं जाना
किसी की बेटी को बेटी
बहन को बहन और माँ को माँ
हमने तो हाथ जोड़कर कह दिया था
कि- साहब ! गाँव हमारा नहीं है
खेत हमारा नहीं है
खलिहान हमारा नहीं है
ये हँसता हुआ आसमान हमारा नहीं है
नींद और सपनों से जूझते
सोच रहा था
वह बेदखल किसान
महानगरों से चीलर की तरह
चिपकी हुई झोपड़ी में
कि क्यों  पड़े हो हमारे पीछे
शब्द् भेदी बाण की तरह
क्या अभी भी नहीं बुझ पायी है प्यास
सुलगती आग की तरह।
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पुरस्कार- विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।


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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

M VERMA का कहना है कि -

अन्तर्द्वन्द की कविता ..
शिल्प की सशक्तता अपेक्षित थी.

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

गँवई वातावरण का सुंदर वर्णन है। बधाई।

महेन्‍द्र वर्मा का कहना है कि -

ग्रामीणों के शहरों की ओर पलायन के साथ ग्रामीण संस्कृति के पलायन को आपने एक अच्छी कविता में रूपांतरित किया है...बधाई।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति का कहना है कि -

गाँव और किसान , खेत खलिहान का सुन्दर चित्रण ..कविता सशक्त .. .. बधाई

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

वैचारिक द्वंद्व

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

“साहब ! गाँव हमारा नहीं है
खेत हमारा नहीं है
खलिहान हमारा नहीं है
ये हँसता हुआ आसमान हमारा नहीं है
नींद और सपनों से जूझते
सोच रहा था वह बेदखल किसान
महानगरों से चीलर की तरह
चिपकी हुई झोपड़ी में
कि क्यों पड़े हो हमारे पीछे
शब्द् भेदी बाण की तरह” चौहान साहेब आपकी कविता की आत्मा मुझे इन्हीं पंक्तियों में दिखाई दी है. कविता कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई है वैसे बेदखल किसान का चित्रण काफी जानदार बन पडा है. इस प्रस्तुति के लिए आपको बधाई एवं साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय

manu का कहना है कि -

achchhaa likhaa hai...

par thodi aur mehanat ki darkaar lagi...

सदा का कहना है कि -

लहलहाते खेतों में
गेहूं की लटकती बालियां
चने के खेत में
गड़ा रावण का बिजूखा

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति ।

ekoelmer का कहना है कि -

There are some interesting points in time in this article but I don’t know if I see all of them center to heart. There is some validity but I will take hold opinion until I look into it further. Good article, thanks and we want more! Added to FeedBurner as well

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