पल दो पल की यार ज़िदगी,
ज्यों कोई अख़बार ज़िंदगी।
ख़ाली ख़ाली, तन्हा तन्हा,
जैसे हो इतवार ज़िदगी।
थोड़ी बरखा, थोड़ी धूप,
मानो हुई कुँवार ज़िदगी।
उम्र समंदर, चाहत किश्ती,
सांसों की पतवार ज़िदगी।
कभी लहलहाती फसलें पर,
अक्सर खरपतवार ज़िदगी।
कैसे कटे, अगरचे ख़ुद है,
दोधारी तलवार ज़िदगी।
खुला आसमां नेमत रब की,
वरना कारागार ज़िदगी।
ओस, बुलबुला, ख़्वाब, हकी़कत,
कुछ भी हो, है प्यार ज़िदगी।
यूनिकवि: महेंद्र वर्मा
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 कविताप्रेमियों का कहना है :
सच है अखबार के मानिंद है जिंदगी
जिसके पन्ने हर पल बदलते जाते हैं ...
बहुत बढ़िया भाव प्रधान रचना ...
वाह वाह ………………बहुत सुन्दर और भावमयी रचना।
बहुत खूब महेंद्र जी!
एक ग़ज़ल में हर तरह के भाव समेटना आसान नहीं होता, लेकिन आपने जहाँ एक तरफ ज़िंदगी को "साँसों की पतवार" कहा है, वहीं दूसरी ओर इसे "खर-पतवार" और "दुधारी तलवार" के विशेषणों से भी नवाज़ा है। मुझे आपके सारे बिंब पसंद आए।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
बहुत ही सुन्दर रचना।
bahut sundar likha hai aapne.........ati sundar
कभी लहलहाती फसलें पर,
अक्सर खरपतवार ज़िदगी।
जिन्दगी को रेखांकित करती सुन्दर रचना
वर्मा साहब! छोटी बहर की बहुत गहरे माने वाली गज़ल... एक एक शेर जैसे नगीना! हम तो फ़िदा हो गए!!
“खुला आसमां नेमत रब की,
वरना कारागार ज़िदगी।
ओस, बुलबुला, ख़्वाब, हकी़कत,
कुछ भी हो, है प्यार ज़िदगी।“ सरल भाषा में लिखी गई अत्यंत प्रभावशाली कृति है यह. चलिए कम से कम खुले आस्मां के नीचे रहने वालों को तो एहसास ए रश्क हो ही जायेगा. इस बेहतरीन गज़ल के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय
achchi rachanaa hai...
ghazal kahein to halke khatke hain...
par bahut sunder hai..
badhaayi...!!!
कभी लहलहाती फसलें पर,
अक्सर खरपतवार ज़िदगी।
कैसे कटे, अगरचे ख़ुद है,
दोधारी तलवार ज़िदगी।
बहुत सुन्दर रचना ...!!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)