सितंबर माह की यूनिप्रतियोगिता की ग्यारहवीं कविता अपर्णा भटनागर की है। इनकी एक कविता जुलाई माह मे पाँचवें स्थान पर रही थी।
कविता: जींस की यंत्रणा
झेल सकता है
मनोविज्ञान
तुम्हारा चेहरा आबनूसी काला हो सकता है
या झील में तेल की बूँद के चाँद सा
दाग,
अंधापन,
मूक होना
या दुनिया के लिए बहरापन
तुम इन सब में सीख लेते हो जीना !
पर इधर बहुत कुछ आनुवांशिक नहीं
किन्तु डर लगता है
क्योंकि इसे हम ठेल-ठेल कर
भरते हैं
अपनी दिमागी आनुवांशिकता पर
एक दुरूह हैलिक संरचना
जिसमें रीतियों की कोशिकाएं
पनपती हैं -
और जन्म से पहले ही
नाम पाते हो धर्म का
संस्कार का -
जिसमें तुम्हारे ईश्वर की दी कोशिकाएं
धमनियां
नसें
मांस- मज्जा
रूपित-विरूपित होती हैं...,
इंसान से अलग
तुम्हारे नाम अलग होने को चिन्हित करती ..
बस इसी में -
धड़कना सीखता है दिल ...
दिमाग की मशीन
और शरीर के सारे कल-पुर्जे
इश्तहार की तरह
प्रचारित करते हैं
अपनी अस्मिता ...l
गुफाओं में चित्र अंकित करते
न जाने कब
तुमने अलगाव में रहना सीखा?
कब तुम्हारे समूह
स्पर्धाओं की सीमा बुनते गए?
कब इतिहास की सीवन उधेड़कर
तुमने जताना सीखा
कि तुम श्रेष्ठ हो?
कभी तुमने नग्न सौन्दर्य को जिया है...?
तहखानों के बाहर की जिन्दगी...
बहुत दिनों से
बंद हो..!
चिपकी हुई सीलन
सड़ांध
पिस्सू
मकड़ियां...
इन सबके बाहर...
जलता सूरज
हवाओं के जलतरंग
पानी के धरातल के
चिकने-समतल दर्पण हैं ..
झांककर देखो
तुम इंसान हो न !
वंशानुगत
या आनुवांशिक ?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
7 कविताप्रेमियों का कहना है :
अपर्णा भटनागर जी की कविता जींस की यंत्रणा - बहुत गहरा मंथन करती हवी हमारी अनुवांशिकता पर और वंशानुगत पूर्वनिर्धारित रीती रिवाज और धर्मान्धता पर... खूबसूरत रचना
gahan soch!
sundar rachna!!!
दुनिया के लिए बहरापन
तुम इन सब में सीख लेते हो जीना !
पर इधर बहुत कुछ आनुवांशिक नहीं
किन्तु डर लगता है
क्योंकि इसे हम ठेल-ठेल कर
भरते हैं
अपनी दिमागी आनुवांशिकता पर
एक दुरूह हैलिक संरचना
जिसमें रीतियों की कोशिकाएं
पनपती हैं -
और जन्म से पहले ही
नाम पाते हो धर्म का-
संस्कार का-
उपर्युक्त पंक्तियाँ "जींस की यंत्रणा" को व्यक्त करने में सक्षम ही नहीं अपितु व्यापक अर्थ प्रस्तुत करती हैं ....हमेशा की तरह अलग सा विषय-विवेचन...
अपर्णा जी व हिन्दयुग्म दोनों को बधाई!
एक चिंतनपरक एवं सुविचारित रचना है यह!
अपर्णा जी को बधाई...!
“झांककर देखो
तुम इंसान हो न !
वंशानुगत या आनुवन्शिक?” गहन आत्मचिंतन-युक्त वैज्ञानिक सोच वाली एक अनूठी कविता है यह! आपने जिस प्रयोजन के लिए यह कविता लिखी है वह अपनी सार्थकता सिद्ध करने में सफल हुआ है. इस कृति के लिए आपको बहुत बधाई. अश्विनी कुमार रॉय
गहन भावों के साथ अनुपम शब्द रचना ।
तुम इंसान हो न !
वंशानुगत
या आनुवांशिक ?
भाव गाम्भीर्य है रचना में
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)