प्रतियोगिता की पाँचवीं कविता अपर्णा भटनागर की है। 6 अगस्त 1964 को जयपुर (राजस्थान) में जन्मी अपर्णा ने अंग्रेजी तथा हिंदी में एम.ए. किया है। 2009 तक दिल्ली पब्लिक स्कूल में हिंदी विभाग के प्राध्यापक एवं कोऑर्डिनेटर पद पर कार्यरत रहीं। "मेरे क्षण" (कविता-संग्रह) प्रकाशित है।
पुरस्कृत कविता- लॉस्ट जनरेशन
लॉस्ट जनरेशन!
नहीं खोएँगे!
भाले, बर्छी, कुल्हाड़ियाँ, गुलेलें
इन्हें अजायबघर में रखने की युक्ति?
हम्मूराबी के कोड की इबारतें!
पिरामिडों में दफ़न
सिपहसलार, दास-दासियाँ!
न, न.. हुश!
इस ज़माने का तजुर्बा
जंगलों के जीवित अहसास
पहाड़ों के रोड़े
बरसाती नालों का उद्दाम
मुनि-चिड़ियों के श्लोक
बाँस सूखे-हरे
कछुआ मिट्टी की पीठ पर
जंगली उगी घास
अल्पनाएँ गुमटी की
अर्ध-नग्न सभ्यता
छी... धिक् !
तुम्हारी आँखों का विस्मय
फैला डर
अजनबीयत
काले-धूसर
अपनी परछाईं बुनते
सदियों से
खड़े
मानव-लौंदे!
थू...थू .. पिंड
अब भी नहीं पहचाना !
लॉस्ट जनरेशन !
विषय एन्थ्रोपोलोजी!
क्यों पहचानने की कोशिश है?
पहचानो
सामने तो खड़े हैं!
पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
ati sundae, स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
क्यों पहचानने की कोशिश है?
पहचानो
सामने तो खड़े हैं!
और फिर गर पहचान भी गये तो विस्मय तो होना ही है ....
नई तरह की कविता है..अच्छी लगी..
Taazi aur khoobsurat lekhni.atyant samvedansheel
कविता lost generation पसंद करने के लिए सभी पाठकों का हार्दिक अभिनन्दन. मेरा प्रथम प्रयास सफल हुआ और कविता हिंदी युग्म जैसी स्थापित पत्रिका में स्थान बना पायी. नए लोगों के लिए स्थान बना पाना कठिन होता है और फिर ये भी judge करना मुश्किल होता है कि आज के युग के इस फरमे में वे कहाँ fit होते हैं. मेरे लिए इस कविता का छपना बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस क्षेत्र में मेरा आना शैशव का आरम्भ ही है. आप सभीका ह्रदय से धन्यवाद !
सभ्यता और मानव के वस्तुकरण को रखांकित करती सुन्दर रचना ! एक विशेष सभ्यता के मानव मूल्यों का क्षरण - छिः , घिन , थू ...के भाव - के साथ हो रहा है और रस्मी अध्ययन के विषय - मानवविज्ञान प्रभृति ... - आदि द्वारा उसपर बात भी की जा रही है | २६ जनवरी को नुमाइश की वस्तु भी बना लिया जाता है इन्हें ! ऐसे में कवि द्वारा कविता में प्राकृतिक दृश्यों की योजना समीचीन है , जिससे हम अंधे से कटते जा रहे हैं ! जिन जातियों/संस्कृतियों ने अपने वर्तमान को नैसर्गिक धडकनों से ज़िंदा किया है , उन्हें हम 'अजायबघर में रखने की युक्ति' के साथ देखते हैं | अपनी बात को निष्कर्ष पर सिमेटूं तो इस कविता में उपेक्षित आदिवासी समाज/संस्कृति की व्यथा का ईषत-स्पर्श भी पा रहा हूँ ! कविता में एक किस्म का नयापन है ! आभार !
अमरेन्द्र , आपने सही समझा . वास्तव में ये कविता एक प्रयोग है मेरा . शब्दों के कई बिंदु दिखाई देते हैं ...... अलग-अलग . जैसे बच्चों का खेल ... बिंदु जोड़ कर चित्र बनाइये. ये कविता भी बिन्दुओं को जोड़ने जैसी ही है और उसमें आप सफल हुए. जब लिख रही थी तब खुद मेरी आँखों में सिर्फ बिंदु थे ... संसार के मानचित्र में आदिवासी जन -जातियां बिंदु के सामान बिखरी पड़ी हैं ... बिखरी संस्कृति, बिखराव जीवन का लेकिन जो इन बिन्दुओं का रेखागणित समझ रहा है उसे इन जन-जातियों में समग्र सुन्दर संस्कृति का रूप झलकता है और जो नहीं समझ पाता उनकी निगाहों में सिर्फ जंगल ....और कुछ नहीं. आपने समझा .. आभार !
थू...थू .. पिंड
अब भी नहीं पहचाना !
लॉस्ट जनरेशन !
विषय एन्थ्रोपोलोजी!
क्यों पहचानने की कोशिश है?
पहचानो
सामने तो खड़े हैं!
पलाश को छू लेने में...गंडक में घुटने भिगाने में...और कुरुख में बात करने में जो सौंदर्य है, वही मिला मुझे इस कविता में... आपके लिए कुछ कहने योग्य नहीं पाता मैं स्वयं को...शुभकामनाएँ दे रहा हूँ. यूँ ही लिखती रहे.
सुन्दर शब्द रचना ।
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