प्रतियोगिता के छठी कविता की रचनाकार के रूप मे एक नया नाम हिंद-युग्म से जुड़ा है। जया पाठक श्रीनिवासन की यह हिंद-युग्म पर प्रथम कविता है। जया का जन्म 1977 मे मुम्बई मे हुआ। पुने के सिम्बिओसिस संस्थान से प्रबंधन मे परास्नातक जया वर्तमान मे गुड़गाँव मे मार्केटिंग क्षेत्र मे कार्यरत हैं। पढ़ने-लिखने के अतिरिक्त चित्रकला मे अभिरुचि रखने वाली जया का काम कई प्रदर्शनियों मे भी प्रदर्शित हुआ है।
प्रस्तुत है उनकी कविता जो एक भावनात्मक धरातल पर मानवीय संबंधों की पहचान के स्तरों की पड़ताल करने की कोशिश करती है।
पुरस्कृत कविता: तुम किस परत में मिलोगे
तुम किस परत में मिलोगे-
वह परत बताएगी
कि तुम कब थे
और कब तक थे
बताएगी
तुम्हारे साथ और क्या था
कब तक था
हाँ वही परत बताएगी
तुम कौन थे
कैसे थे
तुम्हारा नाम क्या था
कितना था
पर बस...
इतना ही हो तुम केवल??
वह जो ह्रदय
धड़कता है तुम्हारे में
उसकी धड़क
वह जो धौंकनी सी चलती है
संघर्षरत तुम्हारे में
उसकी धधक
और वह जो कविता बुनते हो तुम
रोज़ रोज़
उसकी खनक
उसका क्या होगा...
मिटटी कैसे संजो कर रख सकेगी
इतना सब अपनी परतों में
और वह,
जो निकालेगा एक दिन तुम्हे
कुरेद कर उन परतों में से
उसकी अंगुलियाँ
कैसे समझ सकेंगी
इतना सब...
वह तो टटोलेंगी
बस तुम्हारी अस्थियाँ
तुम्हारी चीज़ें-बर्तन-सामान कुछ
और कुछ महल मंदिर
क्या तुम्हारी शिनाख्त इनसे हो जाएगी
पूरी की पूरी?
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
..सत्य की खोज में लगे ज्ञानियों ने, परत के भीतर झांकने की कोशिश की है। यह कविता भी उसी मानसिक दशा को बताती है।
..इस बार की प्रतियोगिता में एक से बढ़कर एक कविताएँ आईं, ऐसा लगता है।
..वाह!
जया जी की रचना एक कवि के मनोभावों को दर्शाती हुई ..उनकी रचनाशीलता की परिचायक है....बधाई एक अच्छी रचना के लिए...
बहुत सुन्दर रचना .. परत के नीचे परत और उसमें झाँकने का साहस केवल कवि कर सकता है .. जया ने ये कार्य बखूबी किया है ... बहुत बहुत बधाई जया !
जो निकालेगा एक दिन तुम्हे
कुरेद कर उन परतों में से
उसकी अंगुलियाँ
कैसे समझ सकेंगी
इतना सब...
वह तो टटोलेंगी
बस तुम्हारी अस्थियाँ
तुम्हारी चीज़ें-बर्तन-सामान कुछ
और कुछ महल मंदिर
क्या तुम्हारी शिनाख्त इनसे हो जाएगी
पूरी की पूरी?आप को शुभ कम्नाये जया जी ...आप ...वेसे भी चित्रों को उकेरती है तो ..कलम भी आप के साथ रिधय को साथ लेकर चलती है ...एक रिय्न्गम रचना जी आप की ...मानव तो झकझोर ने पर विवास करती ....पुनः आप को ढेर साडी शुभ कामनाओ सहित बधाई !!!!!!!!!nirml paneri
जो निकालेगा एक दिन तुम्हे
कुरेद कर उन परतों में से
उसकी अंगुलियाँ
कैसे समझ सकेंगी
इतना सब...
वह तो टटोलेंगी
बस तुम्हारी अस्थियाँ
तुम्हारी चीज़ें-बर्तन-सामान कुछ
और कुछ महल मंदिर
क्या तुम्हारी शिनाख्त इनसे हो जाएगी
पूरी की पूरी?आप को शुभ कम्नाये जया जी ...आप ...वेसे भी चित्रों को उकेरती है तो ..कलम भी आप के साथ रिधय को साथ लेकर चलती है ...एक रिय्न्गम रचना जी आप की ...मानव तो झकझोर ने पर विवास करती ....पुनः आप को ढेर साडी शुभ कामनाओ सहित बधाई !!!!!!!!!nirml paneri
परत दर परत, व्यक्तित्वों के अन्दर, न जाने कितने भाव छिपे हैं।
sundar rachna!
shubhkamnayen!
कविता में एक अस्मिता - विषयक प्रश्न अहमियत के साथ रखा गया है ! क्या अस्मिता उन परतों में है ? , पर वे तो निहायत अपूर्ण हैं उसे बता सकने में ! इस दृष्टि से एक व्यक्ति-जाति-समाज की अस्मिता का प्रश्न पूरी मानव-जाति की अस्मिता से जुड़ जाता है !
जया जी कविता की एक ख़ास विशेषता इनमें स्त्री-स्वर वर्तमान की नारेबाजी से अलग संवेदनशीलता की शक्ति को प्राथमिक तौर पर 'एड्रेस' करता है ! ऐसा मैंने जया जी की इस एक कविता को पढ़कर नहीं बल्कि अन्य कविताओं से गुजर कर अनुभव किया है |
बधाई !
जया आपने अच्छी कविता बुनी है. खुदा करें आप परत दर परत और गहरी उतरें .
www.manojbhawuk.com
बहुत ही सधे हुए प्रश्न करती है कविता....परतों में कैसे ढूंढा जा सकेगा अस्तित्व ...कवी की सोच ही पंहुच सकती है वहाँ...
बधाई हो जया!
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ......…
के ज़िन्दगी तेरी जुल्फों की नर्म छाओं में ........
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी .......
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुक़द्दर है .......
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी ...........
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है ........
के तू नहीं , तेरा गम , तेरी जुस्तजू भी नहीं ............
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे ...........
इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं ...........
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ..........
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है..............
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ......…
के ज़िन्दगी तेरी जुल्फों की नर्म छाओं में ........
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी .......
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुक़द्दर है .......
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी ...........
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है ........
के तू नहीं , तेरा गम , तेरी जुस्तजू भी नहीं ............
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे ...........
इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं ...........
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ..........
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है..............
जयाजी,
बहुत-बहुत बधाई पुरस्कार और वाकई पुरस्कार-योग्य कविता के लिये भी !!
सचमुच यह पड़ताल का विषय है कि मानव क्या है ?!
संवेदना, संवेदनशीलता का अद्भुत् तत्त्व क्या है ?
जब संवेदनशीलता अपने ही प्रति संवेदनशील हो जाती है, तो क्या किसी अमूर्त्त संवेदनशीलता का ही आविष्कार नहीं होता ?
क्या इसे ही दूसरे शब्दों में चैतन्य या चेतना नहीं कह सकते ?
क्या यह विचार या शब्द-संयोजन में समाहित हो सकता है ?
"सत्य की खोज करनेवाले ज्ञानियों........ "
ने उसे कहने की कोशिश भी की है,
इसीलिये ईश्वर का एक नाम "कवि" भी है ।
सादर,
गंभीर चिंतन....
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...वाह !!!
ये केवल कोरी कल्पना नही बल्कि गम्भीर चिन्तन से दिल की परतों से उठते कुछ सवाल है। कवि मन कल्पना मे आकाश की ऊँची उडान भरता है तो चि8न्तन से दिल की सागर जैसी गहराई मे कुछ मोटी ढूँढ लाता है। यही वो मोती हैं। जया जी को बधाई।
बहुत बहुत बधाई जया...हिन्दयुग्म पर तुम्हे पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव कर रही हूँ.....
गहराई में उतरती हुई एक उत्कृष्ट रचना ..लिखती रहो..
behad khoobsurti se likhi hai.wah.
जो निकालेगा एक दिन तुम्हे
कुरेद कर उन परतों में से
उसकी अंगुलियाँ
कैसे समझ सकेंगी
इतना सब...
वह तो टटोलेंगी
बस तुम्हारी अस्थियाँ
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
जया जी,
इस सुन्दर रचना के लिए... बधाई!
जया जी को इस सुन्दर कविता के लिए बधाई ..
अच्छी कविता लिखी जया..मुबारक हो..अभी नजर पडी..
aap sabka abhaar!
aap sabka abhaar!!
jaya
क्या तुम्हारी शिनाख्त इनसे हो जाएगी
शिनाख्त की ही जद्दोजहद है जिन्दगी...
सुन्दर रचना
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