प्रतियोगिता की पंद्रहवीं कविता अनवर सुहैल की है। अनवर साहब की एक कविता इसी साल के फरवरी महीने में प्रकाशित हुई थी।
पुरस्कृत कविता: पिता:दो चित्र
पिता: एक
तुम बुड्ढे हो गए पिता
अब तुम्हें मान लेना चाहिए
आने वाला है ‘द एण्ड’
तुम बुड्ढे हो गए पिता
कि तुम्हारा इस रंगमंच में
बचा बहुत थोड़ा-सा रोल
ज़रूरी नहीं कि फिल्म पूरी होने तक
तुम्हारे हिस्से की रील जोड़ी ही जाए
इसलिए क्यों इतनी तेज़ी दिखाते हो
चलो बैठो एक तरफ
बच्चों को करने दो काम-धाम...
तुम बुड्ढे हो गए पिता
अब कहाँ चलेगी तुम्हारी
खामखाँ हुक्म देते फिरते हो
जबकि तुम्हारे पास कोई
फटकता भी नहीं चाहता
तुम बुड्ढे हो गए पिता
रिटायर हो चुके नौकरी से
अब तुम्हें ले लेना चाहिए रिटायरमेंट
सक्रिय जीवन से भी...
तुम्हें अब करना चाहिए
सत्संग, भजन-पूजन
गली-मुहल्ले के बुड्ढों के संग
निकालते रहना चाहिए बुढ़भस
तुम बुड्ढे हो गए पिता
भूल जाओ वे दिन
जब तुम्हारी मौजूदगी में
कांपते थे बच्चे और अम्मा
डरते थे
जाने किस बात नाराज़ हो जाएं देवता
जाने कब बरस पड़े
तुम्हारी दहशत के बादल...
तुम बुड्ढे हो गए पिता
अब क्यों खोजते हो
साफ धुले कपड़े
कपड़ों पर क्रीज़
कौन करेगा ये सब तुम्हारे लिए
किसके पास है फालतू समय इतना
कि तुमसे गप्प करे
सुने तुम्हारी लनतरानियां
तुम इतना जो सोचो-फ़िक्र करते हो
इसीलिए तो बढ़ा रहता है
तुम्हारा ब्लड-प्रेशर...
अस्थमा का बढ़ता असर
सायटिका का दर्द
सुन्न होते हाथ-पैर
मोतियाबिंद आँखें लेकर
अब तुमसे कुछ नहीं हो सकता पिता
तुम्हें अब आराम करना चाहिए
सिर्फ आरा....म!
पिता: दो
मैं भी हो जाऊँगा
एक दिन बूढ़ा
मैं भी हो जाऊँगा
एक दिन कमज़ोर
मैं भी हो जाऊँगा
अकेला एक दिन
जैसे कि हो गए हैं पिता
बूढ़े, अकेले और कमज़ोर
मैं रहता हूँ व्यस्त कितना
नौकरी में
बच्चों में
साहित्यकारी में
बूढ़ा होकर क्या मैं भी हो जाऊँगा
बातूनी इतना कि लोग
कतराना चाहेंगे मुझसे
बच कर निकलना चाहेंगे मुझसे
मैं सोचता नहीं हूँ
कि मैं कभी बूढ़ा भी होऊँगा
कि मैं कभी अशक्त भी होऊँगा
कि मैं कभी अकेला भी होऊँगा
तब क्या मैं पिता की तरह
रह पाऊंगा खुद्दार इतना
कि बना सकूँ रोटी अपनी खुद से
कि धो सकूँ कपड़े खुद से
कि रह सकूँ किसी भूत की तरह
बड़े से घर में अकेले
जिसे मैंने अपने पिता की तरह
बनवाया था बड़े शौक से
पेट काटकर
बैंक से लोन लेकर
शहर के हृदय-स्थल में!
पता नहीं
कुछ भी सोच नहीं पाता हूं
और नौकरी में
बीवी, बाल-बच्चों में
साहित्यकारी में रखता हूँ खुद को व्यस्त
मेरे सहकर्मी भी
नहीं सोच पाते
कि कभी होएंगे वे बूढ़े, कमज़ोर और अशक्त
अक्सर वे कहते हैं
कि ऐसी स्थिति तक आने से पहले
उठा लें भगवान
तो कितना अच्छा हो...
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूबसूरती और परोक्ष रूप से पिता के दर्द को उकेरा है
काफी होशियारी से आपने अपनी समस्या रचना में कही है...
बधाई...
इन दो कविताओं को पढ़कर लगा कि मेरे ही भाव को शब्द मिल गए हैं. मैने भी इन विषयों को अभिव्यक्त करने का खूब प्रयास किया है.
..बधाई.
Anwar suhail ji badhai! aapne samaaj ke is paridrishya, jismein bado ka sthaan gaun hota jaa raha hai, ko bahut achhi tarah se pesh kiya hai. bujrgon ki to ab koi sunta hi nahi hai itana hi nahin gharon se beghar bhi ho gaye hain. sammaj ki bigadti sthi ko darpan dhikhane ki ab awshykta ho chuki hai.
बुढापे का दर्द...बूढे होने के बाद ही महसूस किया जा सकता है!....जब अपनी ही संतान से अपशब्द सुनने को मिलते है!... वास्तविकता की पोल खोलती कविता, धन्यवाद!
ek 3rd comment aur...
hamaari mail ID shaayad kisi ne haik kar li hai...khul nahin rahi ...
shailesh ji koi madad kar sakein to bataaiyegaa...
manu 'be-takhallus'
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
बहुत अच्छी रचना. अच्छा चित्रण किया है.
....
इन्हीं रास्तों पर
नभ को चादर मान परे रहेंगे ,
राह देखते एक कर्मनिष्ठ की ।
कीचड़ो में सने करते रहेंगे विनतियाँ,
पंक को न चाहिए कुछ अपने इष्टदेव से,
बस इतनी ही कृपा हम मांगते त्रिदेव से,
शौर्य दे इतना उसे , पूर्ण हो मनोकामना !
हम राह देख हैं रहे, अपने श्रवण कुमार की।
.......... पर तुम्हारे कामनाओं की भी कोई सीमा है ?
- प्रकाश 'पंकज'
http://pankaj-patra.blogspot.com/2009/12/do-jarjar-banson-ki-seedhi-prakash.html
.
http://prakashpankaj.wordpress.com
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