प्रतियोगिता की आठवीं कविता अनवर सुहैल की है। 09 अक्टूबर, 1964 को नैला जांजगीर छत्तीसगढ़ में जन्मे अनवर सुहैल अंसारी की कहानियों और कविताओं का प्रकाशन देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में होता रहा है। कुंजड़-कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद,चहल्लुम (कहानी संग्रह), और थोड़ी सी शर्म दे मौला! (कविता संग्रह), पहचान, दो पाटन के बीच (उपन्यास) इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। 21 वर्ष कोल इण्डिया लि. की सेवा और विगत पांच वर्षों से बहेराबांध भूमिगत खदान में सहायक खान प्रबंधक के रूप में कार्यरत अनवर साहित्यिक पत्रिका ‘संकेत’ का सम्पादन भी कर रहे हैं।
पुरस्कृत कविता: जितना ज्यादा
जितना ज़्यादा बिक रहे
गै़र-ज़रूरी सामान
जितना ज्यादा आदमी
खरीद रहा शेयर और बीमा
जितना ज्यादा लिप्त इंसान
भोग-विलास में
उतना ज्यादा फैला रहा मीडिया
प्रलय, महाविनाश, आतंकी हमले
और ‘ग्लोबल वार्मिक’ के डर!
ख़त्म होने से पहले दुनिया
इंसान चखना चाहता सारे स्वाद!
आदमी बड़ा हो या छोटा
अपने स्तर के अनुसार
कमा रहा अन्धाधुन्ध
पद, पैसा और पाप
कर रहा अपनों पर भी शक
जैसे-जैसे बढ़ती जा रही प्यास
जैसे-जैसे बढ़ती जा रही भूख
वैसे ही बढ़ता जा रहा डर
टीवी पर लगाए टकटकी
देखता किस तरह होते क़त्ल
देखता किस तरह लुटते संस्थान
देखता किस तरह बिकता ईमान
एक साथ उसके दिमाग में घुसते
वास्तुशास्त्र, तंत्र-मंत्र-जाप,
बाबा रामदेव का प्राणायाम
मधुमेह, रक्तचाप और कैंसर के इलाज
कामवर्धक, स्तम्भक, बाजीकारक दवाएं
बॉडी-बिल्डर, लिंगवर्धक यंत्र
मोटापा दूर करने के सामान
बुरी नज़र से बचने के यत्न
गंजेपन से मुक्ति के जतन
इसी कड़ी में बिकते जाते
करोड़ों के सौंदर्य प्रसाधन
अनचाहे बाल से निजात
अनचाहे गर्भधारण का समाधान
सुडौल स्तन
स्लिम बदन के साथ
चिरयुवा बने रहने के सामान
बेच रहा मीडिया...
बड़ी विडम्बना है जनाब
आज का इंसान
होना नहीं चाहता बूढ़ा
होना नहीं चाहता बीमार
और किसी भी क़ीमत में मरना नहीं चाहता...
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
आदरणीय अनवर सुहैल जी आपकी रचना में बाजारनुमा समाज और समाजनुमा बाजार का व्यग्यात्मक चित्रण व चलन की शब्दावलियों को देखकर मन गुदगुदाया भी और दिमाग चकराया भी , बहुत ही सामयिक व सार-सार प्रहार किया है आपने ...
बड़ी विडम्बना है जनाब
आज का इंसान
होना नहीं चाहता बूढ़ा
होना नहीं चाहता बीमार
और किसी भी क़ीमत में मरना नहीं चाहता..
अनवर सुहैल जी नी आज के इन्सान की मानसिकता किस कद बाज़ार बाद की भेंट चढ गयी है इसका बहुत अच्छा चित्रन कविता मे किया है। उन्हे बधाई। आपको और हिन्द युग्म के सभी सदस्यों को होली की बहुत बहुत शुभकामनायें
बहुत सटीक अर्थात्मक कविता है ज़नाब । बहुत बहुत बधाई।
---इन्सान होना नहीं चाहता बूढा
होना नहीं चाहता बीमार.------यही तो सबसे बडी बीमारी है जो लगगयी है इन्सान को ज़नाब।
पुनः बधाई.
अच्छे भाव. सार्थक रचना. बधाई.
क्या कहें....?
अनवर भाई ,
प्रभावकारी एवं प्रासंगिक कविता है , लेकिन मुझे कुछ लक्ष्य से हटी हुयी लगी . स्वयं को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाए रखना स्वाभाविक और मानवमात्र की कमजोरी है , बिडंबना नहीं . परन्तु मिडिया के माध्यम से
चालाक ब्यावासायी जैसे ब्यक्ति ,जन साधारण को अपना शिकार बना रहे हैं . आपका निशाना इन लोगों तरफ सीधा होना चाहिए था . मूलतः आपका प्रयास बहुत प्रशंसनीय है .
सादर
कमल किशोर सिंह
acchi kavita h
uma
मन के रंग लगा दो तो मना लूं होली
दिल से दोस्त बुला दो तो मना लूं होली
मतलब परस्ती के तेज़ाब से
जो लहू हो चूका सफ़ेद
उसे लाल सुर्ख बना दो तो मना लूं होली ........
नस्ल जात मज़हब के
जुदा रंगों को मिलाकर
मेरे माथे पे लगा दो तो मना लूं होली
बरसों से भटक रही जो
मेरे देश की जवानी
उसे राह तुम दिखा दो
निस्वार्थ तुम बना दो तो मना लूं होली
"इसी कड़ी में बिकते जाते
करोड़ों के सौंदर्य प्रसाधन
अनचाहे बाल से निजात
अनचाहे गर्भधारण का समाधान
सुडौल स्तन
स्लिम बदन के साथ
चिरयुवा बने रहने के सामान
बेच रहा मीडिया "
कोई खरीद भी रहा है ये सब ....दोष केवल बेचने वाले का नहीं हो सकता |
बिकता वही है जिसकी कहीं न कहीं कोई जरुरत होती है ...मुझे कोई विडंबना नहीं दिखती ...
और आखिरी में ये मैं पचा नहीं पाया ..
"बड़ी विडम्बना है जनाब
आज का इंसान
होना नहीं चाहता बूढ़ा
होना नहीं चाहता बीमार
और किसी भी क़ीमत में मरना नहीं चाहता..."
आज के इंसान को पूरा दोष देना गलत होगा ...पुँराने दिनों में भी इंसान बूढ़ा और मरना नहीं चाहता था साहब ..अमृत की खातिर पूरा समुद्र मंथन ही हो गया ...ययाति की कहानी mein चिर यौवन की इस आकांक्षा का प्रमाण है..
अनवर जी सबसे अच्छी बात मुझे ये लगी की आपकी कविता इन्टरनेट पे पढने को मिली
सादर
दिव्य प्रकाश
आदमी से लाकर पर्यावरण तक, मीडिया से लेकर हमारे अपने तक सब का चित्रण कर डाला आपने आज के दौर की कहानी बयाँ करती आपकी यह रचना कविता के साथ साथ एक सामाजिक दर्पण भी है जिसमें सच्चाई छिपी है...अनवर जी आप की यह बेहतरीन रचना पढ़ना काफ़ी सुखद रहा ..हमारी बधाई आप तक पहुँचे....शुभकामनाएँ..
वाकई..बड़ी विडम्बना है जनाब..
बड़ी विडम्बना है जनाब
आज का इंसान
होना नहीं चाहता बूढ़ा
होना नहीं चाहता बीमार
और किसी भी क़ीमत में मरना नहीं चाहता...
...aaj ke haalaton ka bahut sateek sarthak chitran
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)