मई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की 8वीं कविता सुरेन्द्र अग्निहोत्री की है। सुरेन्द्र की एक कविता जनवरी महीने की यूनिकवि प्रतियोगिता के शीर्ष 11 में चुनी गई थी। शीर्ष 10 में आने का इनका पहला मौका है।
पुरस्कृत कविता
वो सच नहीं है जो कथा में लिखा जाता है गाँव
उसमें नही होती है हरिया की हूँक, महुआ की छाँव
नहीं होती है उसमें वहाँ लगातार दिलों में जल रही आग
नदी, नाले, खेत-खलिहान और पत्ते बाली साग
हाँ उसमें होता है वाक्-चार्तुय
और अधूरे आसान से पात्र
जो सिर्फ रचना को कालजयी बनाने रचे जाते
विश्वविद्यालयों और गोष्ठियों के लिए पहचाने जाते
सच में अगर उन जैसे गाँव में निकल आते
तो लिखने वाले उसे नहीं पहचान पाते
संदिग्ध विचार का सतही प्रोपेगण्डा
प्रसिद्धि का शॉर्टकट यही है फण्डा।
दुःस्वप्न
यह भी कोई जीना हुआ
जिंदगी दुःस्वप्न बन कर रह गई
बिना नींव की इमारत की तरह
उदासी की परछाईं बन गई
लोगों को आश्चर्य होता
उतार-चढ़ाव भरा यह सफर
चढ़ तीन कमान पर
बड़ा लिए कदम इधर-उधर
भूलने और याद करने को तज कर
चमत्कार को नमस्कार कर
यह भी कोई जीना हुआ
जिंदगी दुःस्वप्न बन कर रह गई
आधा घर इधर
आधा घर उधर
कोई काम नहीं आसान
राशन, थाना, बैंक, अस्पताल बदहाल
मजा लेने का नया शगल
मानवता हो रही बेहाल
कैसे तम्बू कैसे पाल
जिन्दगी से न रखे ख्याल
भूख से दम तोड़ते लोगो को,
लूट कर हो रह मालामाल
डर
चींटियाँ पेड़ों से
अंधेरी नम जगहों में जाने लगीं
हरिया यह देखकर
मन ही मन घबराने लगी
लगातार सूखा से सूख रहे तन की आस
इस वर्ष भी मुरझाने लगी
पिछले बरस भाई को भी खोकर
हिम्मत नहीं हारी थी हरिया
साहूकार, सरपंच और सिपाही की
नहीं पहुँची थी बखिया
लेकिन अब उसकी हिम्मत
तार-तार हो रही
आने वाले संकट से डर
अंधेरे कमरे में रो रही
वह जानती है ललचाती त्रयी
देह के लिए ठहाके लगा रही।
सूखा
गोयथे ने कहा था
जो व्यक्ति पिछले तीन हजार वर्ष के इतिहास को
नहीं जानता
वह अंधकार में जीता है।
सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोग
अपने देश/प्रदेश में घट रहे हालात नहीं जानते
उन्हें क्या कहा जाये?
जिन्हें पता नहीं है
राजधानी के बाहर भी है देश/प्रदेश
लोक का तन्त्र गाँवों में रहता है
जो भूख, बेकारी, गर्मी, सर्दी सहता है
जिनके घर में आज भी जिन्दा ममता है
प्यार वहाँ वासना का खेल नहीं
पूजा वहाँ स्वार्थ का मेल नहीं
चेहरे ज्यादा साफ नहीं
लेकिन दिल पूरे साफ हैं
जो गिरगिट की तरह रंग बदलना नहीं जानते हैं
इसीलिए स्वार्थी उन्हें नहीं पहचानते हैं।
पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
पूजा वहाँ स्वार्थ का मेल नहीं
चेहरे ज्यादा साफ नहीं
लेकिन दिल पूरे साफ हैं
जो गिरगिट की तरह रंग बदलना नहीं जानते हैं
इसीलिए स्वार्थी उन्हें नहीं पहचानते हैं....
कटु वास्तविकता ...
a truth,told in beautiful words
bahut acche dhang se racha hai lekhak ne rachna ko..parantu vastvik stithi mein kalpana ka tadka lagaaya hai.. :)
सुरेन्द्रजी ने बिलकुल सही फरमाया है... कथा-कहानियों मे जो गांव चित्रित किए जाते है...असल में गांव वैसे नहीं होते!...उत्तम रचना!
Chehre zyaada saaf nahin par dil poore saaf hain.....Kya baat hai waah,waah
''चेहरे ज्यादा साफ नहीं
लेकिन दिल पूरे साफ हैं''
गांवों में भी सारे दिल साफ ही हों, अब ऐसा भी नहीं है.....भ्रष्टाचार की जड़ें हर जगह उतनी ही गहरी हैं......वैसे, कविता ठीक लगी....
सुरेन्द्र जी,
गाँव के सन्दर्भ में आपकी बात को आगे बढ़ाते हुये मैं श्रीकाँत वर्मा जी की दो पंक्तियाँ दोहराना चाहूंगा :-
गरूड़,
कभी था ही नही
वह गिद्ध था
जिन्होंने गिद्ध नही देखा
उन्हीं के सपनों में आता है गरूड़
शायद गाँव अब किसी फैंटेसी की तरह लिये जाते हैं और सभी अपनी कल्पना और वर्जनाओं को गाँव की पृष्ठभूमि से जोड़ लेते हैं।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
लोक का तन्त्र गाँवों में रहता है
जो भूख, बेकारी, गर्मी, सर्दी सहता है
गाँव की ताजगी सी सुन्दर रचना
बहुत सुन्दर
सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोग
अपने देश/प्रदेश में घट रहे हालात नहीं जानते
उन्हें क्या कहा जाये?
जिन्हें पता नहीं है
राजधानी के बाहर भी है देश/प्रदेश
लोक का तन्त्र गाँवों में रहता है
जो भूख, बेकारी, गर्मी, सर्दी सहता है
जिनके घर में आज भी जिन्दा ममता है
वास्तविकता यही है सुरेन्द्र जी लेखन से वास्तविकता दूर होती जा रही है, लेखक वर्ग भी प्रोफ़ेशनल बनकर छ्पास, सुनास और धन के लिये लिखने लगा है. ऐसी स्थिति में वास्तविक चित्रण संभव ही नहीं है.
मै मुकेश कुमार तिवारी जी की बात से सहमत हूं.
सही बात है यही वास्त्विक्ता है। बधाई सुरेन्दे जी को।
surendra je sarthak kavita ke liye badhayee.
reality ke saath jab ..kavita ke tatva judte hain to unka prabhav hi kuch aur ho jata hai .. imagination.aur reality dono ka zabardast istemal...gaon ke behad kareeb ki nazm ...:)
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