जनवरी माह की यूनिप्रतियोगिता के ग्यारहवे स्थान पर काबिज कविता के रचनाकार सुरेंद्र अग्निहोत्री हैं। लखनऊ के निवासी सुरेंद्र जी की हिंद-युग्म पर प्रकाशित यह प्रथम कविता है।
अब हम गायेंगे मातमी गीत
क्योंकि पीपल नहीं रहा
इस लिये चिट्ठी नहीं लायेंगे पंक्षी
पंक्षी के रहने को पीपल जरूरी था
हमने अपने हाथों घासलेट डालकर
आग के हवाले कर दिया
अब वहां कोई पीपल नहीं उगेगा
न कोई वहाँ पंक्षी गाना गाएगा
न कोई खुशियों की सौगात लायेगा
अपने हाथों अपनी अनवरत सांसों को रोका है
हमने अपने हाथों अपना घरौंदा फूँका है
लाक्षागृह को आग लगाने वाले कौरव हमीं है
कल की खुशियों के झरोखे और रोशनदान बन्द कर दिये
चीख गूँज रही चारों ओर
पूरा मंजर उदास है
हमारी देह अन्धी सुंरग में बदहवास है !!
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाकई यही मंजर है
त्रासद
सही बात है पर्यावरण को नुक्सान पहुचने वाले
हम ही तो है....और उसका खामियाजा भी
हमी को भुगतना है....
सुंदर सामयिक भावों को एक बढ़िया रूप दिया आपने..कविता अच्छी लगी...सुरेंद्र जी इस सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई ..उम्मीद करते हैं आगे भी कुछ बढ़िया मिलेगा...धन्यवाद
पर्यावरणीय दुश्चिंता से अधिक कुछ संप्रेषित करती रचना !
इसमें हम भी हैं, परिवार भी है,समाज भी, पर्यावरण भी !
सुन्दर रचना का आभार ।
"अपने हाथों अपनी अनवरत सांसों को रोका है
हमने अपने हाथों अपना घरौंदा फूँका है"
समसामयिक सोच - प्रशंसनीय कविता.
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