तकरीबन ३० वर्ष से स्रजनकर्म से जुड़ी संगीता सेठी हिंद-युग्म की नियमित पाठिका हैं। हिंद-युग्म की यूनिप्रतियोगिता की स्थाई प्रतिभागी संगीता जी की रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर की प्रमुख पत्रिकाओं और समाचार पत्रों मे प्रकाशित हो चुकी हैं। युनिप्रतियोगिता मे कई बार इनकी कविताएँ शीर्ष दस कविताओं मे शुमार रही हैं तथा पिछली प्रतियोगिता मे इनकी एक कविता सातवें स्थान पर रही थी। जनवरी माह मे इनकी इस कविता ने तेरहवाँ स्थान प्राप्त किया है।
कविता: हाहाकार
हाहाकार
मचा है मन में
मै कौन ?
मैं क्यों ?
किसके निमित्त ?
क्या करने आई हूँ पृथ्वी पर ?
प्रश्न दर प्रश्न बढती जाती हूँ
दिल के हर कोने में पाती हूँ
मचा है हाहाकार
चलती जाती हूँ सड़क पर
शोर गाड़ियों का
घुटन धुएँ की
चिल्ल-पौं हॉर्न की
सबको जल्दी
आगे जाने की
उलझे हैं सारथी, हर गाड़ी के
देते हुए गालियाँ, एक दूसरे को
देख रही हूँ मैं
एयरकंडीशन कार में बैठी
मचा है सड़क पर
हाहाकार
चलती हूँ हाई-वे पर
दौड़्ते दृश्यों में
एक बस्ती के बाहर
ज़मीन से ऊपर सिर उठाए
नल के नीचे
बाल्टियों की कतारें
अपनी बारी के इंतज़ार मे
तितर-बितर लोग
उलझते एक दूसरे से
कि नहीं है सहमति
एक घर से दो बाल्टी की
मेरे घर के बाहर
एक बालिश्त घास का टुकड़ा
पी जाता है ना जाने
कितना गैलन पानी
और यहाँ बस्ती में
एक बाल्टी पानी के लिए
मचा है
हाहाकार
पिज़्ज़ा पर बुरकने के लिए
चीज़
केक को सजाने के लिए
क्रीम
डेयरी बूथ पर रोकी कार मैंने
देखकर लम्बी कतार सड़क तक
थोड़ी धक्कमपेल में ठिठकी मैं
कोई झगड़ा
कोई फसाद
आशंका मन में
कतार के सबसे पीछे खड़े
मफलर में लिपटे चेहरे को पूछा
“आज क्या है इस डेयरी पर ”
मूँग की दाल
मिल रही है कंट्रोल रेट पर
बहनजी !
आप भी ले आओ राशन कार्ड
एक धक्के से खिसक गया वो
और पीछे
मचा है यहाँ भी
हाहाकार !
मेरे चाचा का इकलौता बेटा
सड़क दुर्घटना में सो गया
सदा के लिए
चीखों-पुकार
करुण-क्रन्दन
नोच गया दिल
पोस्ट्मार्टम के इंतज़ार में
खड़े हम
अस्पताल के पोर्च में
प्रसव वेदना से तड़पती
माँ ने दम तोड़ दिया
छ्ठा बच्चा था उसका
“अब इतने जनेगी तो
मरेगी ही ना ”
लोगों के जुमले
मचा रहे थे
मन में मेरे हाहाकार
हैती में आया है भूकम्प
ले ली है जानें
कितने लोगों की
रोते, बिलखते, उजड़ते, बिखरते
लोगों के चेहरे
पिछली सारी यादों को गडमड करते
कभी सुनामी, कभी बाढ
कभी भूकम्प, कभी सूखा
और नहीं तो
तूफान-भंवर
इससे भी नहीं थमा
धरती-सागर
तिल-तिल बढती ग्लोबल वार्मिंग
मच रहा हैं
हाहाकार
धरती से ऊपर क्षितिज पर
आसमान में
कभी बादलों का रोना वर्षा से
कभी सूरज का सोखना धरती से
कभी छेद है ओज़ोन परत में
और धरती के पार
आकाश गंगा के रास्ते
सौर मण्डल के अपने दर्द
कभी सूर्य को ग्रहण
कभी चन्द्र को ग्रहण
कभी टूटता तारा
कभी उल्का पिण्ड
अलग होते आकाश से
मचा है खगोल में भी
हाहाकार
उठती हूँ नींद से
मचा है
हाहाकार
अब भी मन में
उथल-पुथल
नख से शिख तक
करता हुआ
आँखे नम
कौन हूँ ?
क्यों हूँ ?
कहाँ से ?
कब आई हूँ ?
अपना ये हाहाकार
कुलबुलाता है
धरती पर
बिसरते लोगों से लेकर
धरती के पार तक
उनके हाहाकार से
छोटा हो गया है
मेरा हाहाकार
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
हम जब भी दूसरों का दर्द महसूस करते हैं हमें अपना दर्द बहुत छोटा जान पड़ता है.
अच्छी कविता.
इस पंक्तियों ने खास प्रभावित किया..
मेरे घर के बाहर
एक बालिश्त घास का टुकड़ा
पी जाता है ना जाने
कितना गैलन पानी
और यहाँ बस्ती में
एक बाल्टी पानी के लिए
मचा है
हाहाकार.
...बधाई.
अपने और अपने समाज के बीच से उठती हुई दर्द को शब्द देती हुई एक लाज़वाब प्रस्तुति...सच्चाई यही है दर्द बहुत है चारो ओर कुछ तो फ़र्ज़ इंसान का बनता है की अपना अंश अदा करे....बढ़िया सशक्त अनुभूति...धन्यवाद संगीता जी
जब से ब्रम्हाण्ड की तुलना में पता पड़ा अपना आकार,
उस क्षण से बन्द हुआ, मचा हुआ जो हाहाकार ।
अपना ये हाहाकार
कुलबुलाता है
धरती पर
बिसरते लोगों से लेकर
धरती के पार तक
उनके हाहाकार से
छोटा हो गया है
मेरा हाहाकार
सोचने को मजबूर करती अभिव्यक्ति....शुभकामनाये...
regards
अपना ये हाहाकार
कुलबुलाता है
धरती पर
बिसरते लोगों से लेकर
धरती के पार तक
उनके हाहाकार से
छोटा हो गया है
मेरा हाहाकार
अति सशक्त संवेदनशील प्रस्तुती है,दुसरो का दर्द जब दिल मे मह्सुस करते है तो अपना दर्द स्वतःही छॊटा हो जाता हे
बधाई हो आपको......
संवेदनशील रचना के लिये संगीता जी बधाई!
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