प्रतियोगिता की तेरहवीं कविता की रचयित्री भावना सक्सेना हैं। हिंदी लेखन मे गहन रुचि रखने वाली भावना वर्तमान मे सुरिनाम मे हिंदी व संस्कृति के विकास से संबद्ध हैं। इनकी पिछली कविता भी नवंबर माह की प्रतियोगिता मे छठे स्थान पर रह चुकी है।
कविता: मैं-सत्य
क्या कहा-
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं.............
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान.........
हर कपट निरखता।
आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।
गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया.....
रहूँ कहाँ......
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।
चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
11 कविताप्रेमियों का कहना है :
आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
सच के साक्ष्य प्रस्तुत करती ह्रदयस्पर्शी रचना
marmsparshee
अच्छी कविता.
सरल शब्दों में सफल अभिव्यक्ति के लिए 'भावना सक्सेना' बधाई की पात्र हैं.
Nice blog well done, interesting poems
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी
सत्य का अस्तित्व कभी मिटाया ही नही जा सकता आज की दुनिया में भले थोडा कमजोर पद जाए...बहुत सुंदर रचना बधाई!!
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।
बहुत सुन्दर सटीक अभिव्यक्ति है भावना जी को बधाई
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
sach kam se kam yahan salamat hai...is ashavadi rachna par bahut bahut badhai
आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद...
bahut sunder kavita hai badhai
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
satay ke saksh ki ek sunder or saral rachana
चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
......सत्य को किसी सहारे की आवश्यकता नही, किसी की दया का आकांक्षी नहीं ... सत्य सादा ही समय की भाल पर सूर्य सा चमकता रहा है... हाँ ... हमारी नज़र और नजरिया जरूर बदला है सत्य के प्रति... जिससे सत्य में मायने अपनी तरह से लगाया जाने लगा है ... जबकि सत्य अपनी सम्पूर्णता के साथ आज भी अविनाशी है.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)