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Thursday, January 21, 2010

मैं-सत्य हूँ


प्रतियोगिता की तेरहवीं कविता की रचयित्री भावना सक्सेना हैं। हिंदी लेखन मे गहन रुचि रखने वाली भावना वर्तमान मे सुरिनाम मे हिंदी व संस्कृति के विकास से संबद्ध हैं। इनकी पिछली कविता भी नवंबर माह की प्रतियोगिता मे छठे स्थान पर रह चुकी है।

कविता: मैं-सत्य

क्या कहा-
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं.............
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान.........
हर कपट निरखता।

आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।

गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया.....
रहूँ कहाँ......
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।

चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।

मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
सच के साक्ष्य प्रस्तुत करती ह्रदयस्पर्शी रचना

Divya Narmada का कहना है कि -

marmsparshee

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

अच्छी कविता.
सरल शब्दों में सफल अभिव्यक्ति के लिए 'भावना सक्सेना' बधाई की पात्र हैं.

dr vikram का कहना है कि -

Nice blog well done, interesting poems

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी

सत्य का अस्तित्व कभी मिटाया ही नही जा सकता आज की दुनिया में भले थोडा कमजोर पद जाए...बहुत सुंदर रचना बधाई!!

निर्मला कपिला का कहना है कि -

जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।
बहुत सुन्दर सटीक अभिव्यक्ति है भावना जी को बधाई

Unknown का कहना है कि -

मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
sach kam se kam yahan salamat hai...is ashavadi rachna par bahut bahut badhai

bhawna का कहना है कि -

आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद...

amita का कहना है कि -

bahut sunder kavita hai badhai

रचना प्रवेश का कहना है कि -

मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।

satay ke saksh ki ek sunder or saral rachana

पद्म सिंह का कहना है कि -

चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
......सत्य को किसी सहारे की आवश्यकता नही, किसी की दया का आकांक्षी नहीं ... सत्य सादा ही समय की भाल पर सूर्य सा चमकता रहा है... हाँ ... हमारी नज़र और नजरिया जरूर बदला है सत्य के प्रति... जिससे सत्य में मायने अपनी तरह से लगाया जाने लगा है ... जबकि सत्य अपनी सम्पूर्णता के साथ आज भी अविनाशी है.

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