लोग हैं कि दुश्मनी के रास्ते गढते यहाँ,
और तुम कि दोस्ती से बाज आते हीं नहीं...
मान भी लो दुनिया तेरे सोचने जैसी नहीं,
मान भी लो तुमको ये अंदाज आते हीं नहीं....
मौन हो लो क्योंकि तेरे कहने का ना फ़ायदा,
होठ सी लो जैसे कि अल्फ़ाज़ आते हीं नहीं....
ज़ख्म है ये जानता हूँ पर मुनासिब है यही,
सोच लो कि कोढ के ये खाज आते हीं नहीं...
कौन होगा जो कहेगा लूटने दो मुझको भी,
इस तरह उनके तो तख्तो-ताज आते हीं नहीं...
खूब तुमको है पड़ी जो कालिखें उतारने की,
यार देखो! देवता तक आज आते हीं नहीं...
-विश्व दीपक
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
ज़ख्म है ये जानता हूँ पर मुनासिब है यही,
सोच लो कि कोढ के ये खाज आते हीं नहीं...
विश्व दीपक जी एक खूबसूरत जज़्बात की प्रस्तुतिकरण..होते है कुछ लोग जिन्हे दूसरे के रहन सहन से कोई फ़र्क नही पड़ता वो बस अपने तरीके से जिंदगी जीना ज़्यादा पसंद करते है..बस कुछ ऐसे ही जैसे आपने व्यक्त किया की कहीं कोई दुश्मनी के चाल चले जा रहा है और कहीं कोई दोस्ती निभाए जा रहा है...बहुत बढ़िया ग़ज़ल ..बधाई
दुश्मनी के रास्ते गढ़ने वालों के बीच दोस्ती को जिन्दा रखे हुए है लोग फिर भी...
अच्छी ग़ज़ल या कविता....!!
मान भी लो दुनिया तेरे सोचने जैसी नहीं,
मान भी लो तुमको ये अंदाज आते हीं नहीं....
बहुत अच्छी ग़ज़ल।
लोग हैं कि दुश्मनी के रास्ते गढते यहाँ,
और तुम कि दोस्ती से बाज आते हीं नहीं...
सच है कि आज भी ऐसे दोस्त तो है लेकिन नसीब वालों को!बहुत बढिया रचना...दीपक जी बधाई!
बड़े दिनों बाद आपको पढ़ने का मौका मिल रहा है..उम्मीद है कि अब और रेग्युलरली पढ़ने का मौका मिलेगा आपको..
आपकी कलम पर कुछ हमारा भी हक बनता है भई!! :-)
लोग हैं कि दुश्मनी के रास्ते गढते यहाँ,
और तुम कि दोस्ती से बाज आते हीं नहीं...
सही बात कही आप ने
मौन हो लो क्योंकि तेरे कहने का ना फ़ायदा,
होठ सी लो जैसे कि अल्फ़ाज़ आते हीं नहीं....
sunder bahut sunder
saader
rachana
बहुत सुंदर एवं उत्तम रचना । पढ़कर मन पुलिकत हाे गया ।
िववेक कुमार पाठक
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