प्रतियोगिता की पाँचवी कविता एक आज़ाद नज़्म है, जिसे लिखा है हिन्द-युग्म से बहुत लम्बे समय से जुड़ीं युवा कवयित्री अनुराधा शर्मा ने।
पुरस्कृत कविता- आह
अनुराधा की अन्य रचनाएँ
ग़ज़ल
बहुत सा फ़र्क है
दिल एक चार दीवारों वाला कमरा
बुजुर्ग यादों को याद करने का वक़्त नहीं मिलता
जिस कूचे-गली से मेरा यार हो कर गया
खामोशी की पैराहन पहनेएक नन्ही सी आह,
जाने कब-कब में
सांसों के साथ, बाहर आके
ज़मीं पे जा गिरी....
दिमाग़ ने इसे देखते ही, कदमों को दौड़ाया,
और आह को, कुचल के मारने का फरमान सुनाया,
फिर दिल को, ज़ोर से डाँटा,
कोई देख लेता तो, ज़ेहन की कमज़ोरी का एहसास होता
दिल बड़बड़ाया,
अच्छा हुआ, पैदा होते ही मार गयी
जवान होती तो, सिसकी बनती
और बूढ़ी होके चीख..
फिर मेरी तनहाई कहाँ रहती
हाथ, उस आह की लाश हो उठाने के लिए बढ़े
तो
देखा,
कदमों के नीचे कुछ नहीं था
पैरों के छालों के, ज़ख़्मों से
वो आह,
फिर से जिस्म में जा पहुँची थी...
बहुत कुछ हुआ था और कुछ भी नहीं
प्रथम चरण मिला स्थान- छठवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- पाँचवाँ
पुरस्कार- अनुराग शर्मा तथा अन्य 5 कवियों के कविता-संग्रह 'पतझड़ सावन बसंत बहार' की एक प्रति।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
Beautiful! Too good, Anuradha! You have very effectively communicated the phases of grief ..
God bless
RC
अपना -अपना ख़याल है; रचना आपकी है, मेरा छोटासा ख़याल --
इस रचना को ""फिर मेरी तनहाई कहाँ रहती" इस पंक्ति पर अगर ख़त्म करें तो ज्यादा असरदार लगेगी | कविता का यहाँ यहाँ ख़त्म होना कवी सशक्त होना दिखता है, जो ज्यादा सकारात्मक भाव है| आह का फिर खुद में समा जाना आपने अच्छी तरह से दर्शाया है मगर ऐसा लगा जैसा पहली वर्स (verse) का सशक्त इन्सान फिर दुर्बल हो गया |
बहरहाल, बहुत अच्छी रचना - फिर बधाई !
RC
अनुराधा जी,
आह को एक नये अंदाज में परिभाषित करती कविता अच्छी लगी।
आह के पूरे जीवनचक्र को खूबसूरती से दर्शाया है।
प्रतियोगिता में सफलता पर बधाईयाँ।
मुकेश कुमार तिवारी
अच्छा हुआ, पैदा होते ही मार गयी
जवान होती तो, सिसकी बनती
और बूढ़ी होके चीख..
फिर मेरी तनहाई कहाँ रहती.....बहुत बढिया
nice & sensitive,thought provoking
communicated in a very good manner
and SHILP.
diben
खामोशी की पैराहन पहने
एक नन्ही सी आह,
जाने कब-कब में
सांसों के साथ, बाहर आके
ज़मीं पे जा गिरी....
so beautiful lines.
entire nazm is beautiful. congratulations.
nazm should have been given a place of honor among others.
हाथ, उस आह की लाश हो उठाने के लिए बढ़े
तो
देखा,
कदमों के नीचे कुछ नहीं था
पैरों के छालों के, ज़ख़्मों से
वो आह,
फिर से जिस्म में जा पहुँची थी...
बहुत कुछ हुआ था और कुछ भी नहीं
bahut pahley padh to li thi ,par samjhi nahi thi .
aur ab khoongi ki
is najm ko padhne ke baad
waakai bahut kuch hua hai ,aur kuch bhi nahi .
खामोशी की पैराहन पहने
एक नन्ही सी आह,
जाने कब-कब में
सांसों के साथ, बाहर आके
ज़मीं पे जा गिरी....
bahut sunder,,,,,,
hi
How are you?
Aapki yeh kavita"AAH" dil ko chhu lene wali kavita hai.Iska pravahmayi chitran mujhe bahut achha laga.
Main bhi apni ek tukbandi de raha hoon.
These are my few lines.May be according to grammar these are not apppropriate but it's my hobby to write.Actually I have no experience of writing but I use to write poems , stories and other vidha's to make myself happy.
................................हाथ नहीं आती...........................................
क्यों ज़मीं पर रहने वालों को जन्नत हाथ नहीं आती,
क्यों खुदा के नेक बन्दों को दूसरो की ज़िन्दगी रास नहीं आती,
हमारे साथ तो हमेशा रहती है,
लेकिन ये parchhayian हाथ नहीं आती,
हम सभी किन्ही जज्बातों से जुड़े हैं,
ऐसे ही सभी रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं,
हाथ की लकीरें तो हम देख सकते हैं ,
तो फिर यह भाग्य की रेखाएं हाथ क्यों नहीं आती,
वो शक्स उन्हें लाख चाहता रहा,
उनके लिए अक्सर आहें भरता रहा,
वो उसे देखती रही लेकिन,
उसकी मोहब्बत कभी उसे मिली नहीं,
तन तो जलते हैं जून की गर्मी में,
मगर रूह कभी निकलती नहीं,
वो उसे जाने क्यों गैर समझते हैं,
और अपनों में कभी शामिल नहीं करते,
वो उनसे दूर होकर मरने चला है "उड़ता"
मगर मौत हैं की उसके हाथ आती नहीं.
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