आज हम जिस युवा कवि की कविता लेकर उपस्थित हैं, उसने पहली बार फरवरी २००८ में हिन्द-युग्म पर दस्तक दी थी। तक हमने इनकी 'ख़त साँस लेते हैं' कविता प्रकाशित की थी। अनिल जींगर की दूसरी कविता 'कुरकुरी धूप' मई २००८ में प्रकाशित हुई। और आज हम इनकी तीसरी कविता दिसम्बर २००८ की प्रतियोगिता की पाँचवीं कविता के रूप में लेकर हाज़िर हैं।
पुरस्कृत रचना- जन्म
सोच से अलगाव अच्छा हुनर है अदीबों का
अपने दिमाग़ का फितूर जाने
कैसे
दूसरों के जहाँ पे ढोला करते हैं
बात मुमकिन न हो
फिर भी
सितारे बाँध के फेंके हो
आसमान में ऐसा लगता है
वक़्त के पर्चों में
कुछ लिखा नहीं है
हम ही तो बहते हैं सतहों पर
जो गुजारा है
वो गुजरा नहीं है
बस हम गुजरते है
ख़याल ही में रह जाते हैं
ख़याल बन कर ही गुजर जाते हैं
ये सोच के दायरों के परे
हमेशा कुछ चुनते रहते हैं
बुनते रहते हैं
जब कभी सोच
से अलगाव होता है
उस वक़्त इक अदीब का जन्म होता है
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४॰५, ६॰२५, ७॰२
औसत अंक- ५॰९८३३३
स्थान- दूसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ५, ५॰९८३३३ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ४॰९९४४
स्थान- पाँचवाँ
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' द्वारा संपादित हाडौती के जनवादी कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह 'जन जन नाद' की एक प्रति।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
sahejne yogay hai dhanyvaad
वास्तव में सुन्दर प्रस्तुतियाँ रहीं सब की सब। संकलन करके मनन योग्य।
आभार ।
Nice Poem,
बात मुमकिन न हो
फिर भी
सितारे बाँध के फेंके हो
आसमान में ऐसा लगता है
बहुत अच्छे शब्द ....
अच्छी कविता अनिल जी,
बधाई
वक़्त के पर्चों में
कुछ लिखा नहीं है
हम ही तो बहते हैं सतहों पर
जो गुजारा है
वो गुजरा नहीं है
बस हम गुजरते है
जी सही कहा ये ज़िन्दगी कुछ नया हर दिन हर पल लिखती रहती है और हुमुसी के सहारे बहते रहते हैं
सादर
रचना
soch se algaav nahin kewal bhatkaav hi ho saktaa hai,kyoon ki
soch se algaav to shabda, vichaar aur buddhi abhaav main hee sambav hai jo kewal manushya ki mrityu ke baad hi sambhav hai.Aap ki kavita bahut achchhi hai, kintu aapki soch ka hi paryaay hai.
Krishan Shekhri,7/36,Tilak Nagar,Kanpur.
e-mail address:krishpra2001@yahoo.com
वक़्त के पर्चों में
कुछ लिखा नहीं है
हम ही तो बहते हैं सतहों पर
जो गुजारा है
वो गुजरा नहीं है
बस हम गुजरते है
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
waqt ke parchon pur to aadikaal se likhta raha hai maanav, vo chahe Kaaldaas ho,Shakespeare ho,Tagore ho, Jai Shanker Prasad ya Krishan Chsnder ya unginat Kaviyon aur lekhakon mein se koi ek.Unka likha hum aur aap bhi asankhya paathkon ke saath anant kaal se parhte aur saraagte rahe hain. ut-eve AApka ye kathan mithya hai.Kripayaa apni ye bhool sheeghra hi sudhaar len.-Krishna Shekhri
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