एक कवि था
या शायद कवि नहीं था-
लाख कोशिश करता
पर नहीं लिख पाता प्रेम कवितायें,
नहीं मान पाता था
घर के पास रहने वाली लड़की को चाँद
या फ़िर परी |
न उसे लड़कियों के परी
होने पर यकीन होता ,
न ही चांद के लड़की होने का |
लड़की उसके लिये व्रत रखती,
पर वो नहीं समझ पाता
उसके व्रत और अपनी उम्र के रिश्ते को
उसे कभी समझ न आया
कि सुन्दर को सुन्दर कहना
और प्यार को प्यार कहना
क्यों जरूरी है।
वह दिल से सोचती थी,
वह दिमाग पर यकीन करता |
फ़िर भी, उसके जिद करने पर
वह लिखता था कवितायें-
जिनमें सूरज
अपनी मर्जी से ढलता था,
उसकी पलकों के झुकने पर नहीं,
और नदियों में मटमैला पानी बहता था
रोमांटिक कहानियाँ नहीं ।
उसके लिखे को कभी
किसी ने कविता
और उस कवि को कवि नहीं माना |
एक संत था
या शायद संत नहीं था -
लाख कोशिश करता,
पर नहीं मान पाता
पत्थर को भगवान,
नहीं देख पाता कभी
आसमान में बसे हैवन और हेल को-
वह कभी नहीं समझ पाया
कि
भगवान को भगवान
होने की याद दिलाना क्यों जरूरी है
और आदर देने के लिये
सिर झुकाना क्यों जरूरी है
कभी उसके पल्ले नहीं पड़ा ,
उसके जीवन का कोई और
कैसे जिम्मेदार है
उसने कभी सिर नहीं झुकाया,
प्रार्थना नहीं की
और खुद को छोड़कर किसी और पर
यकीन न किया |
उसके किये को कभी भी इबादत
और उसे कभी भी संत नहीं माना गया |
एक आदमी था
या शायद आदमी नहीं था -
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
जबर्दस्त है..
अभी तो बस यही दिमाग में आ रहा है..और कविता के शब्द दिमाग में घूम रहे हैं
बहुत सहज रूप में भावों की अभिव्यक्ति की गई है। बधाई स्वीकारें।
आदमियत के बहुत नज़दीक है आपकी कविता
बहुत अच्छे
बहुत बढ़िया है भाई.
एक आदमी था
या शायद आदमी नहीं था -
सही है...बहुत बढिया।
अक्सर ऐसा होता है कि जो होता है,उसका आकलन कोई नहीं कर पाता.......और शायद तभी वाह एक आदमी कि पहचान से भी परे हो जाता है.............बहुत ही अच्छी कविता,काफी गहरी,गहरे जज्बातों से पूर्ण
बहुत अच्छे आलोक जी!
आपकी कविता है या शायद कविता नहीं है
कह दीजिये अकविता है
पर आपने विचारों को सशक्त रूप से अभिव्यक्ति दी है
आलोक जी आपकी कविता अन्तरे में दबी छिपी बात को झझकोर गई। पर चाँद में महबूबा देखना या महबूबा में चाँद देखना,उपहारों को संजोकर रखना,किसी पुरानी चिठ्ठी मे बीते पल ढूढना..मेघ का दूत होना...य़े सब क्या हैं..शायद आदमियत और कल्पना को अलग नही किया जा सकता।
हरिहर जी आप की कविता भी अकविता ही है ,ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नही है ,
"आभागीमै "जैसी रचना पर ही गौर करे पुनः |
जिनमें सूरज
अपनी मर्जी से ढलता था,
उसकी पलकों के झुकने पर नहीं,
और नदियों में मटमैला पानी बहता था
रोमांटिक कहानियाँ नहीं ।
dil ki gahraaii tak choo gaii ye panktiyaan .
सहजता और संजीदगी से पिरोये हुए
ह्रदय से निकले
सच्चे उद्दगार !!
वाह अलोक भाई वाह
सचमुच बहुत बढिया, मुझे शब्द नही मिल रहे तारीफ के लिए
सुमित भारद्वाज
एक संत था
या शायद संत नहीं था -
लाख कोशिश करता,
पर नहीं मान पाता
पत्थर को भगवान,
नहीं देख पाता कभी
आसमान में बसे हैवन और हेल को-
वह कभी नहीं समझ पाया
भगवान को भगवान
होने की याद दिलाना क्यों जरूरी है
और आदर देने के लिये
सिर झुकाना क्यों जरूरी है
सुंदर अभिव्यक्ति
सादर
रचना
Jisne khud ko chhor ker kisi aur pe
yekeen na kiya,voh sachmuch aadmi tha hi nahin.Sab se pahle maanav shishu apni maan aur phir apne pita per yakeen kartaa hai. uske baad voh apne mitron aur saathiyon per yakeen kertaa hai.jab in sab per se uskaa yakeen tootataa hai to
voh voh apne yakeen ke liye nayaa bindu dhoondtaa hai aur uski yehi khoj use bhagwaan tak le jaati hai jo na dikhaayee detaa hai na sunaayee.uskaa sangraheet gyaan use
yeh anubhhoti detaa hai ki yadi maataa-pitaa uske nirmaataa nahin to kaunhai.Vishwas aur vichaar ka astitva attoot hai.Yadi manushya vishwaas viheen ho jaaye to jar ho jaayega.Main aaj aap ki bhool sudhaarne hetu yeh prayaas kewal isee liye ker rahaa hoon kimujhe aap ke buddhi aur vivek per pooraa vishwas hai.
Krishan Shekhri,7/36,Tilak Nagar,Kanpur.
e-mail address :krishpra2001@yahoo.com
वह दिल से सोचती थी,
वह दिमाग पर यकीन करता |
फ़िर भी, उसके जिद करने पर
वह लिखता था कवितायें-
जिनमें सूरज
अपनी मर्जी से ढलता था,
उसकी पलकों के झुकने पर नहीं,
बहुत उम्दा , स्वाभाबिक अन्तर कवि के दिल और दिमाग में ,कविता दिल से ही निकलती है शायद ??????????????????
एक आदमी था या शायद आदमी नही. सोचने पर मजबूर कर दिया कि मैं आदमी हूँ या आदमी नही.
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