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ढँके जज्बात


प्रतियोगिता की चौदहवीं कविता की रचयित्री सुनीता की यह हिंदयुग्म पर दूसरी कविता है। फ़रीदाबाद से तअल्लुक रखने वाली सुनीता जी अनामिका नाम से लम्बे अरसे से कविताएँ लिखती रही हैं। इनकी पिछली कविता ने अक्टूबर माह की प्रतियोगिता मे ग्यारहवाँ स्थान प्राप्त किया था।

कविता: ढँके जज्बात

अब मै ढाँप लेती हूँ
अपने जज्बातो को तुमसे भी
और ओढ़ लेती हूँ
एक स्वाँग भरी मुस्कान को
छुपा लेती हूँ सारा दर्द
आवाज में भी.
तुम छेद ही नही पाते
इस चक्रव्यूह को,
नही देख पाते
स्वाँग भरी मुस्कान के पीछे
के चेहरे का दर्द.
मेरी आवाज का कंपन
कहीं तुम्हारी ही खनक में
विलीन हो जाता हैं.
तुम स्वयं मे मदहोश हो,
गफलत में हो, कि
मै संभल गयी हूँ
तुम्हारे दिये दर्द से..
किंतु सच....?
सच कुछ और ही हैं.
मै भीतर ही भीतर
पल-पल बिखरती हूँ..
टूटती हूँ.
मगर हर लम्हा
प्रयास-रत रहती हूँ..
अपने में ही सिमटे रहने को..
नही चाहती अब
मै तुम्हे अपनी आहें
सुनांना.
क्युँकि सुना कर भी
देख चुकी हूँ
और बदले में तुम्हारी
रुसवाईयाँ ही पायी हैं.
इसलिये अब मैने
अपने चारो ओर
खडी कर दी हैं
एक अभेद्य दीवार
जिसके भीतर
झांकने की
सबको मनाही हैं
और तुमको भी

मोमबत्तियाँ बुझा देती हूँ और आँसू पोछ देती हूँ


अक्टूबर 2009 की यूनिकवि प्रतियोगिता के 11वें स्थान की कविता की रचयित्री यह मानती हैं कि ये फरीदाबाद (हरियाणा) के लोगो की भीड़ में खुद को तलाशती एक रूह हैं, जिसने 5 जनवरी, 1969 में रोहतक (हरियाणा) की धरती पर कदम रखा और सुनीता (अनामिका) नाम से जानी जाने लगीं। इनका भीगा-बचपन कब कालेज की सीढ़िया चढ़ गया, हिंदी से ऐसे जुड़ गया, बचपन की सीली-सीली सी भावनाएँ कब कविताओं का सा रूप लेकर पन्नों पर उतरने लगीं, पता ही नहीं चला। इनके दोस्तों ने इनके 2-4 लाइन लिखने पर वाहवाही कर दी तो इन्हें शौक सवार हो गया कि बस ये भी कुछ लिख डालें, और बी. ए. द्वितीय वर्ष से जो कलम उठाई तो कुछ न कुछ लिखती ही रहीं।
आज बी.ए. एवम् बी.एड की पढाई पूरी करने के बाद विवाह बंधन में बधे हुऐ दो बच्चो की जिम्मेदारी निभाते हुए, जीविका की जद्दोजहद में जिन्दगी के मध्यान्त तक कब आ पहुँची, पता ही नहीं चला। कब नेट की दुनिया में कदम रखा याद ही नहीं और तब अपना ब्लॉग बनाया और तब हिंद-युग्म जी भी नज़र में आया। बस फिर तो कलम और अधिक सक्रीय हो गयी और आर्कुट, शायरी.कॉम, शायर फॅमिली, शायरी.नेट तथा अन्य साइट्स से विभिन्न उपनामों से कहीं मोडरेटर तो कहीं सदस्य के रूप में जुड़ती चली गईं। बस तब से लेखनी और नेट की दुनिया से इनकका रिश्ता प्रगाड़ होता जा रहा है।


कविता

सब कुछ बिखरता जा रहा है
लेखनी की सांसे टूटने लगी हैं..
सारे गम अंतस को बींध कर..
अब तो नासूर बन चुके हैं..
जिनकी अथाह वेदना
जीने की उम्मीदों को
नोच-नोच कर
जिंदगी को तल्ख़ किये जाती है..!!

चेहरे की झुर्रियाँ
और गहरा चली हैं..
जो अट्टाहस करती हैं..
उस मुस्कान पर
जो स्वांग भरती है..
झिलमिलाती झूठी खुशियों का..!!

मैं मन के इस अभेद्य
तिमिर को भेदने का
मानो आशाओं की मोमबत्तियाँ जला,
असफल प्रयास करती हूँ..,
और....
मोमबत्तियों के गालों पर
पिघलते हुए मोम के आंसू
मेरी इस स्वांग भरती..
मुस्कान का..
मुल्य चुका रहे हैं..!!

मैं थक चुकी हूँ..
इस दोहरी जिंदगी से..
मोमबत्तियाँ अपने हाथों से बुझा..
उनके आंसू पोंछ देती हूँ..!!