नरेंद्र कुमार तोमर की कविताएँ अक्सर असहज करने वाले प्रश्नों से जूझती नजर आती हैं। प्रचिलित मिथकीय तथ्यों को समकालीन सामाजिक संदर्भों मे इस्तेमाल करते हुए वे अपने समाज के बाजारीकरण के खिलाफ खड़े होते हैं और वक्त के यक्षप्रश्नों का सामना करने की कोशिश करते हैं। उनकी पिछली कविता दिसंबर माह मे चौथे स्थान पर प्रकाशित हुई थी। इस माह दो पायदान चढ़ते हुए प्रस्तुत कविता ने दूसरा स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता: निरंतर वध
न होने पर भी
मैं धर्मराज नहीं
युधिष्ठिर नहीं मैं
मैने पांसे नहीं फैंके
जुआँ नहीं खेला
दांव पर नहीं लगाया कुछ,
पर मेरी द्रोपदी छिन गई
उठा ले गया उसे बाजार
दिलाने को साड़ियां
और करता रहा चीरहरण-
करोड़ों की तरह
मैं भी
उतरा नहीं युद्ध में कभी
मैने किसी को नहीं ललकारा
आग, बर्बादी और मौत उगलते
जीवन निगलते
बमों का सामना नहीं किया
पर हो गया लंजपुंज
बाहर आ गईं
अंतड़ियां मेरी भूख से
सूख गया भीतर तक प्यास से-
मैं योद्धा नहीं कहलाया
पर मारा गया बार बार
लड़ते हुए
थोपे हुए
अनचाहे युद्ध
नहीं था कुछ मेरे पास
सिवा हाथ-पांव के
पर मैं लुटता रहा
पिटता-कुटता रहा
सबसे ज्यादा
पूरी करने कामेच्छा अपने पिता की
मैने नहीं की थी भीष्मप्रतिज्ञा
पर मैं होता रहा लगातार
निर्वासित
नहीं था मैं पांचाली पुत्र
मेरा पिता नहीं कर कर रहा था
साम्राज्य के लिए युद्ध
मैं चक्रव्यूह भेदने नहीं गया
पर महारथी मेरा वध् करते रहे
विश्वामित्रों ने मुझे बना दिया त्रिशंकु
लटका दिया अधर में
सदा की तरह देवता
मुझे स्वीकार नहीं करते
अपने स्वर्ग में
और मंत्रशक्ति
मुझे नहीं उतरने देती है
धरती पर
पुरस्कृत कविता: निरंतर वध
न होने पर भी
मैं धर्मराज नहीं
युधिष्ठिर नहीं मैं
मैने पांसे नहीं फैंके
जुआँ नहीं खेला
दांव पर नहीं लगाया कुछ,
पर मेरी द्रोपदी छिन गई
उठा ले गया उसे बाजार
दिलाने को साड़ियां
और करता रहा चीरहरण-
करोड़ों की तरह
मैं भी
उतरा नहीं युद्ध में कभी
मैने किसी को नहीं ललकारा
आग, बर्बादी और मौत उगलते
जीवन निगलते
बमों का सामना नहीं किया
पर हो गया लंजपुंज
बाहर आ गईं
अंतड़ियां मेरी भूख से
सूख गया भीतर तक प्यास से-
मैं योद्धा नहीं कहलाया
पर मारा गया बार बार
लड़ते हुए
थोपे हुए
अनचाहे युद्ध
नहीं था कुछ मेरे पास
सिवा हाथ-पांव के
पर मैं लुटता रहा
पिटता-कुटता रहा
सबसे ज्यादा
पूरी करने कामेच्छा अपने पिता की
मैने नहीं की थी भीष्मप्रतिज्ञा
पर मैं होता रहा लगातार
निर्वासित
नहीं था मैं पांचाली पुत्र
मेरा पिता नहीं कर कर रहा था
साम्राज्य के लिए युद्ध
मैं चक्रव्यूह भेदने नहीं गया
पर महारथी मेरा वध् करते रहे
विश्वामित्रों ने मुझे बना दिया त्रिशंकु
लटका दिया अधर में
सदा की तरह देवता
मुझे स्वीकार नहीं करते
अपने स्वर्ग में
और मंत्रशक्ति
मुझे नहीं उतरने देती है
धरती पर
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
न होने पर भी
मैं धर्मराज नहीं
युधिष्ठिर नहीं मैं
मैने पांसे नहीं फैंके
जुआँ नहीं खेला
दांव पर नहीं लगाया कुछ,
पर मेरी द्रोपदी छिन गई
उठा ले गया उसे बाजार
दिलाने को साड़ियां
और करता रहा चीरहरण-
करोड़ों की तरह
मैं भी
sundar abhivyakti hai.
badhaai.............
बहुत सुंदर रचना है, इसके लिए रचनाकार को बहुत बहुत बधाई। मगर एक बात मुझे आश्चर्यचकित करती है कि आज के जमाने में ज्यादातर कविताएँ नकारात्मक ही क्यूँ लिखी जाती हैं। क्या सकारात्मक जो कुछ भी था या है वो लिखा जा चुका और अब कुछ लिखने को बचा ही नहीं है या नकारात्मकता में जो प्रभाव उतपन्न करने की क्षमता है वह सकारात्मकता में नहीं है।
भीतर तक हिला गयी ,झकझोर गयी रचना....
बस अप्रतिम !!!
जिस प्रकार से विसंगतियों को आपने उकेरा है कि बस....
बहुत बहुत लाजवाब !!!
aapne jis tarah se visangatiyon ki likha hai vo kabile tarif hai .
दांव पर नहीं लगाया कुछ,
पर मेरी द्रोपदी छिन गई
उठा ले गया उसे बाजार
दिलाने को साड़ियां
और करता रहा चीरहरण-
करोड़ों की तरह
मैं भी
sochne pr majbur karti hai ye panktiyan
badhi
rachana
बहुत बहुत सुंदर ,लाजवाब ! निशब्द कर दिया आपने !
बहुत ही प्रभावशाली रचना है... मन मस्तिष्क में उथल पुथल मचा गई... सचमुच हम इतने विवश हैं... बहुत बहुत बधाई....
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