मुकेश कुमार तिवारी हिंद-युग्म के पुराने और लोकप्रिय कवियों मे से हैं। अप्रैल 2009 के यूनिकवि रहे मुकेश जी की इस माह हिंद-युग्म पर लम्बे समय के बाद वापसी हुई है। इससे पहले उनकी एक कविता ’ये लड़कियाँ’ नवंबर 2009 मे प्रकाशित हुई थी। मुकेश जी हिंद-युग्म के यूनिकवियों के प्रकाशन ’संभावना डॉट कॉम’ का हिस्सा भी रह चुके हैं। इनकी कवितायेँ अक्सर मानवीय जीवन के बढते मशीनीकरण के बीच क्षरित होती संवेदनाओं के स्रोत को बचाने का यत्न करती हैं। प्रस्तुत कविता मार्च माह मे छठे पायदान पर रही है।
पुरस्कृत कविता: प्रवासी होते हुये
एक,
सालिम अली थे,
उनसे मैंने जाना था
अपने गाँव की चौपाल पर
पहली बार किसी डॉक्यूमेन्ट्री में कि
पंछी प्रवासी होते हैं
खैर तब तक तो
मुझे प्रवासी होने का भी अर्थ नही पता था
अलबत्ता, पंछियों से खासी पहचान थी
हमारे गाँव से
कोई आदमी बाहर नही जाता था
और पंछी उतने ही थे
जिन्हें मैं पहचानता था
नाम रख छोड़े थे मैंने, उनके
फिर,
न जाने क्यों?
जो लोग कभी गाँव से गये थे
लौटे किसी तीज-त्यौहार पर
और उनका यह लौटके आना
बन ही गया दस्तूर
अब हर मौके पे
लौटते हैं यह लोग गाँव
अपने साथ लिये चमकती कामयाबी में
खामोश नाकामियों
जिसे बिखेर जाते हैं खेत में बीज़ की जगह
और अगली फसल के कटने पर
कोई और छोड़ देता है गाँव
चौंधियाते हुये
इन्हें भी अगली बार लौटने के लिये
साथ तो चाहिये किसी का
अब,
मैं समझने लगा हूँ
प्रवास और प्रवासी दोनों को
लेकिन, अब वो पंछी
जिन्हें सालिम अली कहते थे
हमारे मेहमान नज़र नही आते हैं
आदमी जरूर मेहमान सा
लौटता है कुछ देर के लिये घर
रिश्तों में दीमके लग चुकी है
मियादों की
इस,
फागुन में जब लौटगे वो
महुए,
अब भी उबाले जा रहे होंगे
देर रात तक
सुबह,
पहली धार से मिटाकर तड़प
मदमाती हो जायेगी
लाली फैल जायेगी होंठों से फिसलकर
गालों तक
यूँ लगेगा कि
सूरज कुछ देर के लिये ही सही
ठहर गया हो यहीं आस-पास
और ताक रहा हो
बौराये यौवन को फागुनी बयार में
भीगते / जलते हुये
मांदल की थाप पर
सनसनी दौड़ने लगी है देह में
बालियों में पक रहा है गेंहू /
यौवन संदली बदन में /
और मन में कई ख्वाब
रात लगती ही नही कि खत्म होगी कभी
होली की आँच में
गर्म हो रही होंगी कई हथेलियाँ मेहंदी रची हुई
और पसीना बस सरक रहा होगा
गर्दन से फिसलते हुये
सीने के करीब
या और थोड़ा नीचे....
बस,
एक दो दिन के बाद
लौटके किसी भीड़ में बदल जायेंगे ये
गाँव में पीछे
कोई कर रहा होगा
फसल पकने का इंतजार
___________________________________
पुरस्कार: हिंद-युग्म की ओर से पुस्तकें।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं समझने लगा हूँ
प्रवास और प्रवासी दोनों को
लेकिन, अब वो पंछी
जिन्हें सालिम अली कहते थे
हमारे मेहमान नज़र नही आते हैं
आदमी जरूर मेहमान सा
लौटता है कुछ देर के लिये घर.
bahut hi sunder..bhavpurn prastuti.
bahut sundar rachanaa ...
badhaayi aapko...
sundar rachanaa ...
badhaayi..........
सुंदर रचना, मुकेश जी को बहुत बहुत बधाई
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