कस्बे से लड़कियाँ,
किसी के ब्याह में ही
या किसी और मौके पर
जब शहरों में आती हैं
तो तलाशती हैं अपने होने को
चकाचौंध और
शहरी लड़कियों के बीच कहीं ।
ये लड़कियाँ,
कुछ ज्यादा ही झिझकती हैं
शायद इसलिये अभी तक नहीं सीख पायी हैं
नेट/चैट और डेट का ककाहरा
शहर में होते हुये भी
खुद को कैद कर लेती हैं
रसोई में
और दिखाती हैं क्या सीखा है अब तक
कैसे आटा गूंथना है
रोटी / पराठों और पूड़ियों के लिये अलहदा
कैसे चूल्हा फूंकना है
और दाल का अधहन देखना भी है नम आँखों से।
ये लड़कियाँ,
नहीं भूलती हैं कि
पहली कुचैया (अध-पकी रोटी) देना है गौ-माता को
फिर भगवान जी का भोग लगाना है
यदि कोई तीज-त्यौहार है
या यूँ ही बनाये हैं पकवान तो
भोग पितृ-देवता को भी लगाना है
अगियार करना है / आचमन करना है
फिर सबको भोजन कराना है
पूरी श्रद्धा के साथ ।
ये लड़कियाँ,
जब चौके से फुरसत पाती हैं तो
लेकर ढोलक बैठ जाती हैं
भजन से लगाकर
बन्ना-बन्नी / सौहर / दादरा तक
ना जाने और
क्या-क्या गा-गवा लेती हैं
नाचती भी हैं खूब
और नचवाती भी हैं खूब।
ये लड़कियाँ,
किसी के कहने का इंतजार नहीं करतीं
जब भी वक्त मिलता है पकड़ लेती है अगला काम
चाहे वो आँगन लीपने के लिये गोबर खोजना हो
या दरवाजों पर बनाने हो मांड़ने
या कलश के लिये गोंठना हो जौ गोबर के साथ
या सजाना हो कलश बारात की अगवानी पर
या करना हो नटकौरा*
ये लड़्कियाँ बारात में नही जाती हैं।
*(एक प्रकार का स्वांग जो लड़के की बारात जाने के बाद घर की महिलाओं द्वारा किया जाता है)
ये लड़कियाँ,
जानती हैं मेंहदी लगाना खूब
और बड़ी ही शिद्दत से सजाना शहरी लड़कियों के हाथ
फिर रूई के फाहों से लगाना नीलगिरी का तेल
या मुल्तानी मिट्टी / हल्दी से बनाना उबटन
और चेहरे में रौनक भरना।
ये लड़कियाँ,
जब भी आती हैं शहर
बस सिमटी रह जाती हैं
घर में / रसोई में / रिश्ते निभाने में
और जबकि शहरी लड़कियाँ चुन रही होती हैं
अपने लिये मैचिंग्स / नये हेयर कलर्स
ये लड़कियाँ,
कूट रही होती हैं शिकाकाई
उनके लिये
कल ही का तो दिन है बारात जो आनी है
और फिर इतना सारा काम सिर पर पड़ा है
अच्छा बाकी बातें कल करेंगे
बस ऐसे ही किसी जुमले पर खत्म कर लेती हैं
कुछ भी पूछा जाये उनके बारे में।
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मुकेश कुमार तिवारी
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
देहाती परम्पराएँ जिन्हें हम शहर में आकर छोड़ते या भूलते जा रहे हैं का मार्मिक और विस्तारपूर्वक चित्रण, सुंदर रचना. कवि को धन्यवाद् और आभार.
बिलकुल सही तस्वीर है शहर और देहात की लडकियों की बधाई
यह लड़कियाँ,
किसी के कहने का इंतजार नही करती
जब भी वक्त मिलता है पकड़ लेती है अगला काम
चाहे वो आँगन लीपने के लिये गोबर खोजना हो
या दरवाजों पर बनाने हो मांड़ने
या कलश के लिये गोंठना हो जौ गोबर के साथ
या सजाना हो कलश बारात की अगवानी पर
या करना हो नटकौरा*
यह लड़्कियाँ बारात में नही जाती हैं।
एक कडवा सच
बहुत बेहतरीन
बहुत फर्क है......
वाह!
अच्छी कविता है। इस तरह की कविताएँ अनुभवों को लगातार संजोने और भेदी नज़र से चीज़ों को देखने से तैयार होती है।
बेहतरीन ..
kya sunder tasvir khichi hai .sara manjar aankhon ke samne aagaya ho jaese
saader
rachana
लाइमलाइट से बाहर के सत्य को रोशनी मे लाने मे तो आप उस्ताद हैं ही..यहाँ समाज का एक बड़ा वर्ग जो बालिका से वृद्धा होने तक का सफ़र कुछ छोटे-२ सपनों, कुछ आशाएं, ढेर से वर्जनाओं और परिवारजनों की मेहरबानी के सहारे काट देता है..उसका इतना सजीव व भावनात्मक चित्रण आपकी कलम की सोद्देश्य संवेदनीलता को उजागर करता है..
शाय्द नकटौरा सुना है हमने, नटकौरा कुछ और होता होगा..
लड़कियाँ और उनके मनोभाव का आपने बड़ा ही सजीव चित्रण किया है साथ ही साथ शहर और कस्बों के रीति रिवाज को समेटे हुए बिल्कुल करीब से जाती हुई कविता ... धन्यवाद मुकेश जी
ये लड़कियाँ,
जब भी आती हैं शहर
बस सिमटी रह जाती हैं
सिमटना देहाती लडकियों की नियति है जब तक तब तक ऐसा ही होगा-इसका ईलाज केवल शिक्षा प्रचार है
आप सभी को अपनी प्रतिक्रियाओं के लिये आभार!
अपूर्व जी ने जो कहा है कि "नकटौरा" वह ही सही है दरअसल नाट्य/नाट्क से उपजे हुये शब्द को नटकौरा को आम बोलचाल में नकटौरा ही कहा जाता है। मैं प्रस्तुत कविता में ना जाने कब यह चूक कर गया यह मैं भी मानता हूँ कि नकटौरा ज्यादा प्रासंगिक होता या अपीलिंग।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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