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Monday, November 23, 2009

बेटी! तेरी इस मुस्कान ने मेरी सारी पीड़ा हर ली


आज हमने मनीष मिश्र द्वारा लिखी 'बेटी' विषय पर दो छोटी कविताएँ प्रकाशित की है। प्रतियोगिता की पंद्रहवीं कविता भी इसी विषय पर है जिसे लिखा है दीपाली पंत तिवारी ने।

कविता- बेटी

देखती थी तुझे मैं अब तक कल्पनाओं में
हँसती-इठलाती
नन्हें कदमों से चलती, गिर जाती
किन्तु आज तूने पाया है आकार
मेरी कल्पनायें हुयी साकार
बेटी! तेरी इस मुस्कान ने
मेरी सारी पीड़ा हर ली
दिया मुझे नया जीवन
मेरी दुनिया रोशन कर दी
आ छुपा लूँ तुझे अपनी बाँहों में
चलना सिखलाऊँ जीवन की राहों में

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

राकेश कौशिक का कहना है कि -

बेटी पर एक और कविता.
कल्पनाओं को साकार होते देख ख़ुशी का इजहार करती और जीने के गुर सिखाने का वादा करती (जो हर माँ करती है)एक सुंदर कविता. दीपाली जी को बधाई.

विजय प्रकाश सिंह का कहना है कि -

हे बेटियों के पिता

बेटियों की किल्कारियों से है आंगन हरा भरा,
इनकी नन्ही शरारतों पर सबका मन रीझ रहा,
इनके इरादों के आगे हर अवरोध हारेगा,
मुश्किलें छोड़ कर राह करेंगी किनारा।

इनके हाथों मे जब जब किताबें होगीं,
ये आगे बढ कर कल्पना चावला बनेगीं,
इनके हाथों मे जब होगा टेनिस रैकेट,
बनेगीं सानिया मिर्ज़ा पार कर हर संकट।

इन्हे एक मौका देने मे ही है बस देर हुई,
कोई नहीं रोक सकता बनने से इन्द्रा नूई,
जिन्हे वोट देने का कभी अधिकार भी न था,
उन्होने आज लहरा दिया है हर क्षेत्र में झंडा।

वो दर्जी की बेटी देखो पुलिस अफ़सर हो गयी,
दूधवाले की बेटी कर रही है पी एच डी,
ठाकुर की बेटी भी तो करने जा रही एम बी ए,
इनके पांव को न बांध सक रही घर की दहलीज।

हे पिता इनको सहेजना जब पड़े मुश्किल घड़ी,
न डिगना कर्तव्य से याद कर उनकी कोई गलती,
कुछ भूल हो जाये तो भी मत छोडना इनका हाथ,
ये पत्थर नही इनमे भी है मज्जा और रक्त की धार।

बेड़ियां जो इज्ज़त के नाम से है इनके पांव में पड़ी,
पिता हो काट सकते हो यदि तुम करो हिम्मत थोड़ी,
बहुत बांध कर रख लिया इन्हे रिवाजों के बन्धन में,
दो मुक्ति अब ये भी उड़ें पंख पसार कर गगन में।

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

मेरी कल्पनायें हुयी साकार
बेटी! तेरी इस मुस्कान ने
मेरी सारी पीड़ा हर ली

bahut khubsurat bhavnaye..sundar kavita..badhayi

gazalkbahane का कहना है कि -

भाव अच्छे हैं पर शब्दों पर अगर लेखक ध्यान न दे तो कम से कम संपादक [नियन्त्रक को तो घ्यान देना ही चाहेये]
आ छुपा लूँ तुझे अपनी बाँहों में
चलना सिखलाऊँ जीवन की राहों में
बाहॊ में भरा जाता है छुपाया नहीं
छुपाया या मन में या आंखो -पलकों में

Anonymous का कहना है कि -

श्यामजी - शैलेश को सम्पादन नहीं आता ,,,...

जबरदस्ती में बनी हैं.,.,,,
कोई कुँलिफिकेसन भी तो नहीं हे .......

Anonymous का कहना है कि -

बहुत सुंदर भाव हैं दीपाली जी ! बहुत-बहुत बधाई!

Unknown का कहना है कि -

Bahut hi achhhi kavita he
Bahut achhi soch ke satj

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