मनीष मिश्र की हिन्द-युग्म पर प्रकाशित कविताएँ जल्द ही इनके संकलन 'शहर के पडो़स में चुप सी नदी' का हिस्सा होकर बाज़ार में उपलब्ध होने वाली हैं। तब तक उसी संग्रह से एक-एक करके हम इनकी कविताओं का रसास्वादन कराते रहेंगे।
बेटी-1
बड़ी होती बेटी के साथ
छोटा पड़ता जाता है समय
छोटा होता जाता है घर।
उसके छोटे-छोटे हाथों से फिसलकर
बड़ी होती जाती है जिन्दगी।
बड़ी हो जाती है उसकी आँखें
छोटे-छोटे कौतुहल समेटे।
बेटी-2
मेरी बेटी
जमा करती है आवाजें
और बनाती है
एक तुतलाता, लड़खड़ाता सा शब्द।
शब्द देर तक भटकता है
अर्थ की बेमानी तलाश में
और फिर बिखर जाता है
आवाज में।
मनीष मिश्र
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
"उसके छोटे-छोटे हाथों से फिसलकर
बड़ी होती जाती है जिन्दगी"
"शब्द देर तक भटकता है
अर्थ की बेमानी तलाश में
और फिर बिखर जाता है
आवाज में"
छोटी मगर अति संवदेनशील रचनाएँ. कवि को बधाई.
बहुत सुन्दर रचनायें आ रही हैं बेटिओं पर बधाई
bahut achcha likha hai..behad sanvedanshil kavita..dhanywaad..
उसके छोटे-छोटे हाथों से फिसलकर
बड़ी होती जाती है जिन्दगी।
Betiyun ki jindagi kuch is tarah hi hoti hai......... badi hone par badi jumebariyon se bhar jati hai ............
Bhavpurn kavita ke liye badhai
beti-2 bahut hi shandar hai. Meri najar me kavita shabdo ka khel nahi balki bhawanao ki abhivaykti hai. in panktiyo me bade bade shabd nahi use hue hai kavita gadhi gayi hai jiske maayne ati vishisht hai. manoj ji ne tutlate shabdo ko matlab di hai ki jis avaj me vyakaran nahi pyar hai jo anmol hai...
manoj ji aap badhai ke patra hai.
बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति
चंद पंक्तियों को ही कैसे सोद्देश्य संवेदनशीलता की गाढ़ी चाशनी मे पाग कर एक कविता के रूप मे इतना सरस, सार्थक और सशक्त बना देते हैं..हमें आप से सीखना होगा..
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