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Tuesday, May 03, 2011

मैं कविता कहना चाहता हूँ


मार्च प्रतियोगिता की एक महत्वपूर्ण बात यह भी रही कि इस माह कई पूर्ववर्ती यूनिकवियों ने भी इसमे शिरकत की है। दीपक चौरसिया ’मशाल’ हमारे सितंबर 2009 के यूनिकवि रह चुके हैं। उनकी कविता इस बार दूसरे पायदान पर है। इससे पहले उनकी एक कविता गतवर्ष अप्रैल मे प्रकाशित हुई थी।

पुरस्कृत कविता: मैं कविता कहना चाहता हूँ

मैं कविता कहना चाहता हूँ
हर बार
हर उस बार.. जब मुझे
सच बोलने के लिए दिया जाता है ज़हर
जब भी एकाकार किया जाता है सूली से
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ..

जब भी सच किया जाता है नज़रबंद
झूठ को किया जाता है बाइज्ज़त बरी
जब ज्ञान को विज्ञान बनने से रोका जाता है

जब चढ़ाया जाता है तख़्त-ए-फांसी
'अनलहक' कहने पर
जब बुल्लेशाहों को होती है सज़ा
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ
हाँ तब मैं कविता कहना चाहता हूँ

जब रोटी खरीद पाने की असमर्थता में
किसी देह को बिकते, रौंदे जाते पाता हूँ
जब चिलचिलाती सर्दी में
चाय के अनमंजे गिलासों और चमचमाते बर्तनों के बीच दबी
मासूम की स्कूल की फीस देखता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ

मोहल्ले भर की साड़ियों में
फौल लगाती एक माँ की आधी भरी गुल्लक और
उसकी सूती धोती के छेदों में से जब
बच्चों के भविष्य की किरणें निकलते देखता हूँ
जब दूध की उफनती कीमतों और
चश्मे के बढ़ते नंबर में देखता हूँ समानुपात
जब चार दीयों के बीच
नकली खोये सी दिवाली देखता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ

जब किसी के साल भर के राशन की कीमत
ज़मीं से दो फुट ऊपर चलने वालों के
साल के आख़िरी और पहले दिन के बीच के
तीन-चार घंटों में उड़ते देखता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ

जब महसूसता हूँ एक रिश्ता
तकलीफ से इंसान का
जब निर्वाचित पिस्सुओं को
अवाम की शिराओं से रक्त चूसते देखता हूँ
जब शक्ति को शोषक का पर्याय होते देखता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ

जब एक मॉल की खातिर
सब्जियों, फलों और अनाज के हक की ज़मीनों पर
सीमेंट पड़ते देखता हूँ
कागजी लाभों वाले बाँध के लिए
मिटते देखता हूँ जंगलों, गाँवों के निशान
गरीब के खेत औ घर का सरकारी मूल्य
अफसर के मासिक वेतन से कम देखता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ

ये कविता अमर नहीं होना चाहती
और ना ही कवि...
फिर भी जब सम्मान-अपमान से विलग हो
कुछ करना चाहता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ
या शायद कहना ना भी चाहूँ तब भी
कविता कहलवा लेती है खुद को

ये कवितायें लाना चाहती हैं परिवर्तन
निर्मित करना चाहती हैं नई मनुष्यता

मैं बीज की सी कविता रचना चाहता हूँ
क्रान्ति की नींव रखना चाहता हूँ
क्योंकि जानता हूँ
कल मैं रहूँ ना रहूँ
ये वृक्ष बनेगी एक दिन
एक दिन इस पर आयेंगे फल संभावनाओं के
एक दिन वक़्त का रंगरेज़ आज के सपने को
हकीकत के पक्के रंग से रंगेगा जरूर...
__________________________________
पुरस्कार: हिंद-युग्म की ओर से पुस्तकें।

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19 कविताप्रेमियों का कहना है :

निर्मला कपिला का कहना है कि -

मैं बीज की सी कविता रचना चाहता हूँ
क्रान्ति की नींव रखना चाहता हूँ
क्योंकि जानता हूँ
कल मैं रहूँ ना रहूँ
ये वृक्ष बनेगी एक दिन
निश्चित ही ऐसी कवितायें प्रेरणा देती हैं। जिसके लिये कवि बधाई के पात्र हैं। धन्यवाद।

पूनम श्रीवास्तव का कहना है कि -

rasmi di
dipak mashal dwara rachit ye kavuta aaj ka sashakt aaina hai jise ham andekha kar jaate hain .bahut hi badhai patr hain deepak ji.

मैं बीज की सी कविता रचना चाहता हूँ
क्रान्ति की नींव रखना चाहता हूँ
क्योंकि जानता हूँ
कल मैं रहूँ ना रहूँ
ये वृक्ष बनेगी एक दिन
एक दिन इस पर आयेंगे फल संभावनाओं के
एक दिन वक़्त का रंगरेज़ आज के सपने को
हकीकत के पक्के रंग से रंगेगा जरूर...
bahut hi prabhav shali panktiyan jo nisandeh ek din puri hongi--
itni behatreen rachna pdhvane ke liye aapko bhi
hardik dhanyvaad
v badhai sahit
poonam

कविता रावत का कहना है कि -

मैं बीज की सी कविता रचना चाहता हूँ
क्रान्ति की नींव रखना चाहता हूँ
क्योंकि जानता हूँ
कल मैं रहूँ ना रहूँ
ये वृक्ष बनेगी एक दिन
......bahut sundar prernaprad rachna...Prastuti hetu badhai

RAKESH JAJVALYA राकेश जाज्वल्य का कहना है कि -

कल मैं रहूँ ना रहूँ
ये वृक्ष बनेगी एक दिन
एक दिन इस पर आयेंगे फल संभावनाओं के
एक दिन वक़्त का रंगरेज़ आज के सपने को
हकीकत के पक्के रंग से रंगेगा जरूर...


आमीन............

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

बधाई हो....अच्छी लगी कविता।

Rachana का कहना है कि -

मोहल्ले भर की साड़ियों में
फौल लगाती एक माँ की आधी भरी गुल्लक और
उसकी सूती धोती के छेदों में से जब
बच्चों के भविष्य की किरणें निकलते देखता हूँ
जब दूध की उफनती कीमतों और
चश्मे के बढ़ते नंबर में देखता हूँ समानुपात
जब चार दीयों के बीच
नकली खोये सी दिवाली देखता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ
bahut sunder abhivyakti
kya kahun kavita padh ke mantmugdh hun
bahut bahut badhai
rachana

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

ये कविता अमर नहीं होना चाहती
और ना ही कवि...
फिर भी जब सम्मान-अपमान से विलग हो
कुछ करना चाहता हूँ
तब मैं कविता कहना चाहता हूँ
या शायद कहना ना भी चाहूँ तब भी
कविता कहलवा लेती है खुद को

ईश्वर करे हर कविता ऐसी हो। सुंदर रचना बधाई

दीपक 'मशाल' का कहना है कि -

कविता को प्रसारित करने के लिए हिन्दयुग्म परिवार का आभारी हूँ एवं विचारों एवं कविता लिखने के कारणों को सराहने के लिए सभी प्रबुद्ध पाठकों का

Anonymous का कहना है कि -

अलगाव, आतंक ,घोटाला /क्षत-विक्षत पहचान और दमन का बोलवाला /बढाएंगी सिसकती शक्तियों का हौसला /छोटे से हृदय में /प्यार के कुछ शब्द लेकर /द्वार-द्वार घूमेंगी मेरी कविताएँ /वैसी ही होगी मेरी कविताएँ /हाँ ,वैसी ही होगी मेरी कविताएँ

gopal singh gunjan का कहना है कि -

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