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Sunday, March 27, 2011

बेलें



सनी कुमार की प्रस्तुत कविता जनवरी मे बारहवें पायदान पर रही है। यूनिप्रतियोगिता के सक्रिय प्रतिभागियों मे से एक सनी की कविताएं हिंद-युग्म पर पहले भी प्रकाशित हो चुकी हैं। सनी की कविताओं मे अक्सर नगरीय जीवन की विसंगतियाँ प्रतीकात्मक माध्यम से व्यक्त होती हैं। उनकी एक कविता सितंबर माह मे प्रकाशित हुई थी।

कविता: बेलें

ठूंठ था  
नामालूम क्या नाम था उसका
खोखले से जिस्म से
अपनी उचटती हुई
सूखी छालें
टपकाया करता था
तेज़ हवाओं  में


उन गुलाबी फूलों वाली
बेलों को
पता ही न चला
बस लिपटती चली  आई
इस खोखले से जिस्म पे
लम्हा-लम्हा करके शरारती बेलें----
कभी छेडती उसके खुरदरे  से
बदन को गुदगुदा  के

और कभी ---
सुन लेती सारी  दस्तानें  उसकी
सहलाकर उसके जिस्म को
बड़ा खुश-खुश सा दिखता था
बेलों की बुनी
शॉल ओढ़कर वो

उस गली के कोठीवालों ने
कटवा दिया उसे

उस रोज़ बहुत रोया वो
ठूंठ पेड़
आखिर क्यूँ काटी जा रही हैं
गुलाबी फूलों वाली बेलें भी ??

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5 कविताप्रेमियों का कहना है :

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

कविता की कल्पना और शुरुआत प्रभावशाली है। इसके लिए रचनाकार को बधाई। अंत इतना प्रभावशाली नहीं बन पाया है।

Sushil Kumar का कहना है कि -

कविता चाहे जितनी प्रतीकात्मक हो, उसे सहज ग्राह्य होना भी चाहिये जिसे हम साहित्य की भाषा में संप्रेषणीयता कहते हैं । उस स्तर पर अभी कवि को और आत्ममंथन की जरुरत हो सकती है, हो। पर कवि ने जिस तरह के भाव और शिल्प कविता में उतारने का प्रयास किया है वह प्रसंशनीय है और उनके काव्य - जीवन के उज्ज्वल भविष्य की आश्व्स्ति देता है।

शारदा अरोरा का कहना है कि -

खूबसूरत कविता ..
हमें तो इसका अंत समझ में आया है ..
अपनी दो पंक्तियाँ पेश करती हूँ ...
बेलों का अपना क्या रंग और क्या है वजूद
तनों से लिपटी रहें , सहारे को लडखडाती रहें ...

Dora Shaw का कहना है कि -

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