उमेश पंत भी हिंद-युग्म के पुराने और काफ़ी पढ़े गये कवियों मे रहे हैं। पिछले कुछ अरसे से अनुपस्थित रहने के बाद वो अपनी इस कविता के माध्यम से हिंद-युग्म पर वापस आये हैं, जिसे नवंबर माह मे चौथा स्थान मिला है। इससे पहले उनकी एक कविता जनवरी माह मे आयी थी। भावनाओं के कवि उमेश की प्रस्तुत कविता मे भी आप उनके मन की गहरी और शांत झील मे खयालों की एकाकी नाव को खेते हुए चप्पुओं की आवाज सुन सकते हैं।
पुरस्कृत कविता: इस वक्त मे उस वक्त को याद करते हुए
कुछ अनमना सा होकर
जब इस वक्त मैं उस वक्त के बारे में सोचता हूं
तो सोचना हवा हो जाता है और फैल जाता है बेतरतीब
मैं सोचने की चाह को एक दिशा देना चाहता हूं
पर दिशा होना पानी होने जैसा लगता है
जिसकी थाह लेने का इरादा समंदर की असीमता में
असम्भव की बिनाह पर इतराने लगता है।
मुझे उस वक्त गुमान नहीं था
कि मैं कभी जियूँगा इस वक्त को भी
और इसे जीना ऐसा होगा
जैसे मरने के बीच मंडराना और न मरना
जैसे खून में रख देना गर्म तवा
और नसों के उपर खून का भाप बनकर तैरना
ऐसे जैसे तैरने से बड़ा दुख दुनिया में कोई न हो।
उस वक्त को जब मैं तुम्हें शामिल कर रहा था
अपनी जिन्दगी के आसमान में
तो मुझे लगा था ऐसा करना पूंजीवाद
और मैं हो गया था दुनिया का सबसे बड़ा पूंजीपति
फलतः एक पूंजीवादी होने के नाते
मुझे समझा जा सकता था उस वक्त अमरीका
जिसे अपने सामने हर किसी की खिल्ली उड़ाने का पूरा हक है।
कम से कम उसकी ही तरह मैं तो यही समझता।
उस वक्त मुझे इन्द्रधनुष में भी
नजर आने लगा था केवल वही रंग जो उन आंखों का था
और जाहिराना तौर पर इन्द्रधनु्ष नहीं होता महज गहरा काला
ये बात मुझे मनवाना उस वक्त दुनिया का सबसे कठिन काम होता
ये बात और है किसी ने इतनी कठिन कोशिश की भी नहीं ।
उस वक्त खिड़कियों में कनखियां
और कनखियों में खिड़कियां रहती थी
आंखें सुनती थी एक खास किस्म की आहट को
और हर पदचाप नये अविष्कार की आहट सी
दिमाग को बदल देती थी विज्ञान के घर में
तब सर्वोत्तम की उत्तरजीविता का सर्वोत्तम बनकर
मैं खुद को डार्विन और तुम्हें विज्ञान समझ लेता था ।
उस वक्त की सारी सुर्खियाँ मेरे लिये थी अफवाह
और उन आंखों के पास होने की अफवाह भी सुर्खी थी
मुझे नहीं पता कब ओबामा आया और गया
और इसी तर्ज पर सूरज या चांद
मुझे नहीं पता उस दौर में कितनी मौतें हुई
मैं जी रहा था उस वक्त मौत से गहरी जिन्दगी।
उस वक्त जब मैं गढ़ रहा था
अपने ही अन्दर तेज होती सांसों के महल
जिनकी खिड़की और दरवाजों से
बही चली आती थी वही पारदर्शी हवा
जिसको महसूस किया था मैने कभी तुम्हारे आस पास
वो वक्त इतिहास था
और उसे जीता मैं एक स्वर्णिम इतिहास का साक्षी।
इस वक्त मेरा उस वक्त को याद करना
एक अन्तहीन अंधेरे की थाह लेने सा है
जिसका अस्तित्व कभी था ही नहीं
जिसके नहींपन में तुम अब भी मेरे अन्दर वैसे ही जिन्दा हो
जैसे उस वक्त थी
स्याह अंधेरे से गहरी, अथाह।
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
bahot hi bhavpurna rachna...
सुंदर कविता
भावमय करती शब्द रचना ।
उस वक्त जब मैं गढ़ रहा था
अपने ही अन्दर तेज होती सांसों के महल
जिनकी खिड़की और दरवाजों से
बही चली आती थी वही पारदर्शी हवा
जिसको महसूस किया था मैने कभी तुम्हारे आस पास
वो वक्त इतिहास था
और उसे जीता मैं एक स्वर्णिम इतिहास का साक्षी।
shabdon ka achchha prayon aur gahre bhav
badhai
rachana
acchi rachna
acchi rachna
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