उमेश पंत हिंद-युग्म पर पिछले एक वर्ष से प्रकाशित हो रहे हैं। इनकी कविताएं यूनिप्रतियोगिता मे नियमित रूप से सराही जाती रही हैं। इनकी एक कविता नवंबर माह की यूनिप्रतियोगिता मे नवें स्थान पर रही थी।
दिसंबर माह की प्रतियोगिता मे उमेश पंत की कविता ने छठा स्थान प्राप्त किया है।
पुरस्कृत कविता: दिसंबर की ठंड के दो अलग मतलब
जाने कब
चली होगी वो तेज हवा
और गिर पड़े होंगे
ये सूखे पत्ते जमीन पर।।
पर इस वक्त
जबकि दिसंबर अपनी ठंड में
कँपाती सी हवा को लपेटे
इन पत्तों की पीठ सहला रहा है
और ये पत्ते झूमते हुए
सरसराहट गा रहे हैं।
जमीन की हरी घास को
कम्बल सा लपेटे
ये पत्ते
हरे रंग में तैरती
गिलहरी हो गये हैं।
जैसे हवा बच्चों की तरह
गिलहरियों के पीछे भाग रही हो
और गिलहरियां
किसी नाटक की चरित्र बन
काँपने का स्वांग कर रही हों।
उन पत्तों के नाटक में
जो कुछ देर पहले
गिलहरी हो गये थे
मैं तलाशता हूं अपनी भूमिका
रुमानियत की अंगड़ाईयां लेते
मुझे आता है समझ
कि दिसंबर मुझमें घुलकर
खुद को महसूस करना चाहता है।
लेकिन तभी मैं देखता हूं
सड़क किनारे घिरती रात के शामियाने में
और बदलने लगते हैं
दिसंबर की ठंड के मायने।
वहीं सड़क पर जहां गिरे सूखे पत्ते
कुछ देर पहले गिलहरी हो गये थे
आकर बैठती है एक बूढ़ी औरत
और समेट लेती है गिलहरियाँ
और धू धू करती गिलहरियाँ
जलती हुई बदल जाती हैं मजबूरी में।
ये बूढ़ी औरत
जो अलाव जलाकर
बैठी है बुझी बुझी
सड़क किनारे
दिसम्बर की ठंड ओढ़े
जैसे दिसंबर कम्बल हो
और ठंड उसकी गर्मी।
ये औरत जब माँ हो जाती है
तो उसे अपना बेटा
आसपास नजर नहीं आता
पर वो देख लेती है उसे
कहीं किसी कारखाने में, बस में,
सड़क किनारे साईकिल में,
सब्जी के खुमचे में
या और भी कहीं कहीं
रसूख वालों की गालियां खाते
और ज्यादा हुआ
तो कुछ अदद थप्पड़ भी।
वो देखती है
कि उसका गांव
जब दिल्ली से पीछे छूट रहा था
और दिल्ली नतीजतन
उसके पास आ रही थी
तो उसके बेटे ने
कैसी तो शान से कहा था
कि हम भी हो जायेंगे शहर वाले
शहर जाकर।
और पहली बार
जब उसने देखा था शहर को
पूरे शहरीपन के साथ
तो उसे एक पल को महसूस हुआ था
कि शहर एक जादू है
जो जल्द ही उसकी जिन्दगी में करिश्मा लायेगा।
लेकिन कुछ ही पलों में पहली मर्तबा
उसका ये अहसास अपनी जड़ों से कुछ हिला था
जब बुरी तरह डांटा था उसे
बस के कन्डक्टर ने
और धकेला था उसके लड़के को
कि जाकर खड़ा हो जाये कहीं कोने में।
उस वक्त उसे लगा था
कि ये शहर उसके लिए है भी कि नहीं
कहीं वो किसी गलत दुनिया में
भटक तो नही आई।
पर आज सड़क किनारे
कारों की रफ़्तार
उसके अलाव को बार बार
बुझाये जा रही है
और वो अपनी इस गलत दुनिया में
रह पाने का ढ़ोंग कर
खुद को छल रही है।
उसकी आँखों में भर रहा है धुँआ
और उन आँखों के नीचे
जो पुतलियां ठहरी हुई हैं
उनमें दिसम्बर की ठंड है
और सामने एक फ़्लाईओवर
जिसके नीचे आज उसे रहने की जगह नही मिली
क्योंकि वहां भीड़ ज्यादा थी।
उसे रह रह के याद आ रही है
वो मिट्टी की गरम पाल
जिस पे रखा वो पत्थर का चूल्हा
पेड़ों की टूटी लकड़ियों को जलाता
दिसंबर की ठंड से दे जाता था निजात।
वहां उसके गांव में दिसम्बर की ठंड
चूल्हें पे सिंकते यूँ गुजर जाती थी।
जैसे लकड़ियाँ राख में बदलती
अपनी उम्र में गुजर जाती हैं।
और यहां इस मशीनी शोर में
अपनी खामोशी को खोजती
वो औरत जिसने मेरी गिलहरियाँ जला दी
दरअसल वो बुझी आग की बची-खुची राख में
खोज रही है
शहरी होने के मायने
और मैं सोच रहा हूं कि कितना अलहदा है
एक ही शहर में उसके और मेरे लिए
दिसंबर
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पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
वहीं सड़क पर जहां गिरे सूखे पत्ते
कुछ देर पहले गिलहरी हो गये थे
उन पत्तों के नाटक में
जो कुछ देर पहले
गिलहरी हो गये थे
मैं तलाशता हूं अपनी भूमिका
रुमानियत की अंगड़ाईयां लेते
मुझे आता है समझ
कि दिसंबर मुझमें घुलकर
खुद को महसूस करना चाहता है।
कि ये शहर उसके लिए है भी कि नहीं
कहीं वो किसी गलत दुनिया में
भटक तो नही आई।
हकीकत, शानदार और जानदार. उमेश पंत जी को हार्दिक बधाई.
बहुत ही सुन्दर कविता है उमेश जी को बधाई
उम्दा कविता. बधाई.
ठंड को अलग एक नजरिये से प्रस्तुत करती सुन्दर कविता..उमेश्जी को बधाई!
उमेश जी निसंदेह आपकी कविता थोड़ी बड़ी लगी परंतु कही से कोई गैप नही है कविता में जो हमारे ध्यान को कविता से हटा पाए..पूरी पकड़ बनाए अंत तक चलती जाती है आपकी यह सुंदर और भावपूर्ण कविता साथ में एक बढ़िया संदेश के साथ..बिल्कुल सही कहा आपने समाज के बदलते दौर में ठंड के भी मायने अलग अलग हो गये है...बधाई उमेश जी
Bahut Khoob ..........Very nice
Baakhub... umda aur sarthak rachnaa! Badhai!! "Dilli kee sardi" ko nayee drishtee deti... unhe padhnee chahiye jin ke liye ... ye mukhda ahle darje ka rumaan rachta hai...
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