उमेश पंत हिन्द-युग्म के उन रचनाकारों में शामिल हैं जिनकी रचनाओं ने पाठकों और समीक्षकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। नवम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी एक कविता नवें स्थान पर रही।
पुरस्कृत कविता
अहसासों की वो पगडंडी
मुझे तुम तक ले आई
पर मैं जब तुम्हारे पास पहुँचा
तो जाने क्यों लगा
मैं रास्ता भूल आया हूँ।
तुम्हारी आंखों में
मैंने खुद को पाया
अपरिचित सा
और मुझे खुद से आने लगी
परायेपन की बू।
तुम चुराती रही नजरें
और भावनाओं के जखीरे से
खाली होती रही खुशियां।
तुम किसी जौहरी सी
तौलने लगी मुझे
अपनेपन की कसौटी में
चेहरे पर एक रुखा सा भाव लिए
कि मैं लुटा-पिटा सा
यहाँ क्यों चला आया हूँ।
तुम्हारी आँखें
किसी जादूगर के सम्मोहन सी
मुझे खींच तो लाई
पगडंडी के उस पार
और भावात्तुर-सा मैं
मिटाता रहा अपने पैरों के निशान
ताकि चाहकर भी
वापस ना आ सकूँ
तुम्हारे आशियाने से।
लेकिन आज इतनी नजदीक से
जब देखा है तुम्हारी आंखों में
खुद को अजनबी की तरह
एक टूट चुके मुसाफिर-सा
मैं लौट जाना चाहता हूँ।
पर अब न वापसी का रास्ता है
न पैरों में इतनी ताक़त
और न उम्मीद है आसरे की।
एक बियाबान-सा जंगल है
तुम हो, और तुम्हारे इर्द गिर्द
प्रेत सा परायापन।
अपनत्व की उम्मीद के
जल जाने का धुआँ
गहराता जा रहा है दावानल सा
और इन आंखों से झरती
भावनाओं का गीलापन
न जलने देता है आग को
न बुझ पाती है आग।
साँसों के भीतर
रिसता जा रहा है
रोआंसेपन का धुआँ
और जगा रहा है एक टीस
कि तुम मेरी कभी थी ही नहीं
कि तुम तक तय किया ये सफर
एक भुलावा था
और वो पगडंडी
महज एक मायाजाल।
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
Umesh ji sundar bhav ko saheja hai aapne is kavita me vastvik chitran is duniya ka ki yah ek mayajaal jaise hai..sundar kavita..dhanywaad umesh ji!!
PEEDA KO PRABHAAVPOORN ABHIVYAKTI DI HAI AAPNE....
MARMSPARSHI ATISUNDAR RACHNA...
लम्बे अन्तराल तक हिंदी युग्म से दूर रहा इसका मुझे खेद है.
"साँसों के भीतर
रिसता जा रहा है
रोआंसेपन का धुआँ
और जगा रहा है एक टीस
कि तुम मेरी कभी थी ही नहीं
कि तुम तक तय किया ये सफर
एक भुलावा था
और वो पगडंडी
महज एक मायाजाल।"
अंतर्मन के दर्द को दर्शाती भावपूर्ण प्रस्तुति.
- राकेश कौशिक
--आज के भौतिकतावादी युग में नवयुगलों को ऐसी परिस्थियों से लगातार दो चार होना पड़ रहा है...
सामाजिक ताना-बाना अजीब से मकड़जाल में गुंथता जा रहा है.. जब तक गलती का एहसास होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हारकर कहता है-
----कि तुम मेरी कभी थी ही नहीं
कि तुम तक तय किया ये सफर
एक भुलावा था
और वो पगडंडी
महज एक मायाजाल।
--ऐसी सामाजिक परिस्थिति की बखिया उधेड़ती सफल अभिव्यक्ति के लिए उपाध्याय जी बधाई के पात्र हैं।
सुंदर कविता का पुनः पाठ ..बहुत बढ़िया लगा..आभार उमेश जी!!!
भाव के माने से तो रचना सशक्त है |
बधाई |
अवनीश
Kavita achhi lagi par bahut achhi nahi. ek sadharan kavita. Man ki baat bakhoobi kahi hai. badhai.
--Gaurav 'Lams'
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