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Friday, February 20, 2009

बदल जाता आईना दूब के खेत में


प्रतियोगिता की एक कविता पहले और दूसरे चरण में बहुत ऊपर के स्थानों पर अपना स्थान बनाये रही। चूँकि अंतिम जज ने इसे शीर्ष १० में स्थान नहीं दिया। शुरूआती चरणों के निर्णायकों का सम्मान करते हुए हम इस कविता को भी प्रकाशित कर रहे हैं। इस कविता के रचनाकार उमेश पंत को कविताएं लिखने का शौक कारगिल युद्ध के समय से लगा। तब इनकी उम्र शायद संवेदनाएं जागने की थी। कारगिल पर लिखी उस पहली कविता के बाद अब तक दो सौ से ऊपर कविताएं लिख चुके हैं। खुद से इस वादे के साथ कि जब-जब किसी विषय पर संवेदनाओं का ज्वार उठेगा उसे कविताबद्ध करते रहेंगे। फिलहाल जामिया मिलिया इस्लामिया दिल्ली के मास कॉम रिसर्च सेन्टर से मास कम्यूनिकेशन में एम॰ ए॰ कर रहे हैं। एक महात्वाकांक्षी सोच के साथ उत्तराखंड के पहाड़ों के छोर पर बसे गंगोलीहाट से दिल्ली तक का सफर तय किया है। इसी जज्बे के साथ कि लम्बा है सफर चलना है अभी दूर। 21 वें वर्ष की दहलीज पर है। मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, बल्ली सिंह चीमा, सुमित्रा नन्दन पंत, सुन्दर चंद ठाकुर जैसे कवियों की परंम्परा को आगे बढ़ाने में ये एक अंश भी योगदान दे पाये तो इनकी खुशनसीबी होगी।

कविता

काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए।
कुछ बनने की शर्त को
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में।
और निश्चिंत होकर
लगाता,
सूरज में रोशनी का अनुमान।
रोशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर
और देखता उसे
सुनहला होते।
हवा के बीच कहीं ढूढ़ता-फिरता
बेफिक्र अपने गुनगुनाये गीत
और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द
अपनी कविता के लिए।
मैं आइने में खुद को देखता
कुछ न होते हुए
और बिखर जाता
जैसे हवा बिखर जाती है
मन माफिक।
आइने में सिमट जाता
ओस की बूंदों सा
और बदल जाता आईना
दूब के खेत में।
मेरी आंख बंद होती
मुट्ठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में
इफरात से।


प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ६॰२५, ७॰२
औसत अंक- ६॰१५
स्थान- दूसरा


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ८॰५, ४, ६॰१५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२१६६
स्थान- दूसरा


पुरस्कार- ग़ज़लगो द्विजेन्द्र द्विज का ग़ज़ल-संग्रह 'जन गण मन' की एक स्वहस्ताक्षरित प्रति।

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10 कविताप्रेमियों का कहना है :

manu का कहना है कि -

आपको पहले के दो जजों ने कोई ग़लत निर्णय नही दिया था....
पर फिलहाल यहाँ नंबर तीन की ही चलती है...
पर पढ़ कर ठीक ही लगा आपको....और उम्र के लिहाज से तो बहुत ही सही...

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

उमेश जी,
स्थान निर्भर नहीं करता है...आपने अलग अलग उपमायें प्रयोग कर इस कविता में जान डाली है..

मेरी आंख बंद होती
मुट्ठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में
इफरात से।

आपको आगे भी पढ़्ने को मिले यही कामना है।
शुभकामनायें

manu का कहना है कि -

हाँ, तपन जी स्थान तो लिखने वाले के लिए कोई मायने नही रखता .....पर अगर किसी ने कुछ कहा है ....इस मंच पर अपना समय दिया है....उसे प्रकाशित होना ...चाहे सबसे अन्तिम स्थान पर ही क्यों न हो बेहद मायने रखता है....
हाँ ,,,,,नियंत्रक जी को यदि इस में कही "" स्तर के गिरावट "" जैसी बात लगे तो ...जो की इस बार के ""यूनिकवि"" को देखते हुए नामुमकिन है..." के उस से हल्का स्तर और क्या होगा."..::::))))

आप चाहे तो अआपकी या आपके तीसरे जज की नज़र में जो लोग अप्रतिभाशाली हैं...उन्हें व्यक्तिगत मेल करके सूचित कर दे की आपकी यह रचना कमजोर है...हमारे स्तर की नही है...
हम शामिल नही कर रहे हैं इस बार आपको....बात ख़त्म .....!!!!!!!

जो बीस तीस बचें उन्हें किसी भी क्रम में छाप दीजिये...कम से कम "महा-यूनिकवि" के समक्ष पचासवें नंबर पर अपना नाम देख केर उस का दिल तो नही टूटेगा....कवियों का पलायन तो रुक जायेगा..... भले ही अन्तिम पायदान पर ही सही... कविता तो कहीं न कहीं साँस ले सकेगी...एक बार मेरी एक बहुत ही कमजोर लघु कथा यहाँ पर प्रकाशित नही हुई थी और मुझे दुःख होने के बजाय बहुत ही खुशी हुई थी .....की चलो यहाँ के लोग सोच समझ कर ही निर्णय लेते हैं.....पर कविताओं के मामले में एकदम उलटा है...
आपका यह प्रयास अच्छा लगा ....हमने दस के बाद भी किसी को पढा...उन दो या पाँच जजों को भी कुछ समझा गया......अगर आप तीसरे जज की टिपण्णी भी छाप देते तो और ज्यादा अच्छा होता...

Riya Sharma का कहना है कि -

उमेश जी

ये जजमेंट तो शानदार रहा की आपकी ये कविता यहाँ पर प्रकाशित हुई
वरना इक उम्दा कविता पदने से एक विशेष पाठक वर्ग ज़रूर वंचित रह जाता.

कविता का फलसफा बहुत अच्छा है ..
खुशी हुई इस उम्र में ये भाव !!

लिखतें रहें
बधाई !!

Unknown का कहना है कि -

कविता बहुत अच्छी लगी,
कविता की शुरूवात ने बहुत प्रभावित किया, उपमाओ का अच्छा प्रयोग

Unknown का कहना है कि -

काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए।
कुछ बनने की शर्त को
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में।
और निश्चिंत होकर
लगाता,
सूरज में रोशनी का अनुमान।

ये पंक्तिया बहुत ही अच्छी लगी
सुमित भारद्वाज

Unknown का कहना है कि -

सभी पाठकों और हिन्दयुग्म की पूरी टीम को शुक्रिया। कविता पर की गई टिप्पणियां उत्साह बढ़ाती हैं। इसलिये टिप्पणियों के लिए आभार। और जहां तक सवाल है स्थान पाने या ना पाने का तो वैसे भी कोई रचनात्मक माध्यम स्थान का मोहताज कभी नहीं हो सकता। ये बात और है कि स्थान के चलते रचना पाठकों तक न पहुंच पाये तो कष्ट होता है। मेरी रचना को शीर्ष दस में ही सही स्थान मिला और वह पाठकों तक पहुंच पाई यही सन्तोष की बात है। और हमेशा हिन्द युग्म से यह अपेक्षा भी रहेगी कि अच्छी रचनाएं हमेशा स्थान पाती रहेंगी।

Anonymous का कहना है कि -

हवा के बीच कहीं ढूंढ़ता-फिरता बेफिक्र अपने गुनगुनाये गीत,और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द अपनी कविता के लिए.....बहुत अच्छी लगी आपकी ये पंक्तियाँ! बहुत-२ बधाई!

विपुल का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर कविता...
कुछ अद्भुत बिंबों के साथ..

"सूरज में रोशनी का अनुमान।
रोशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर"

विपुल का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर कविता...
कुछ अद्भुत बिंबों के साथ..

"सूरज में रोशनी का अनुमान।
रोशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर"

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