पेपर में खबर छपा है
अब कोंख भी बिकने लगा है
लल्लन पेपर बाँच रहा है
माँ सुनती है
सरापती है
बेसरम
सनकी है ललनवा
मरद मुर्दा का जाने
कोंख का हाल
पर मैं महसूस करता हूँ
माँ को बात लग गयी है
आँगन में आते ही
वो कर देती है
बिट्टन के आँख में काजर
और बिट्टन आँख मुचमुचा के
भेभियाने लगते हैं
छोटकी का बाल
कर देती है फिर से डबल चोटी
और छोटकी
मुँह फुला लेती है
रख देती है, बीच आँगन में पीढ़ा और पानी
जबकि बाबूजी
अभी नहाये भी नहीं है
कुछ लँगड़ा के चल रही है आज
माँ फिर भूल गयी है
अपनी बिवाइयों में गीरीस लगाना
रिसता खून आँचल से पोछ
पिला रही है बिट्टन को दूध
कल जरूर लाऊँगा दवाई
हाथ में अखबार और
आँख में माँ लिए
सोचता हूँ
औरत
चाहे अपनी कोंख बेंच दे
अपनी छाती का दूध बेंच दे
पर
अपनी ममता कैसे बेंच पायेगी
कवि- मनीष वंदेमातरम्
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
8 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह
मनीष जी वापस आ गये क्या?
एकदम वंदेमातरम स्टाइल मे स्तब्ध करती रचना..
बाजार स्रजन का चाहे जितना भी मूल्य लगा ले..स्रजन शक्ति का कोई मूल्य लगाना असंभव है..ममता भी बाजार की इन सांख्यिकीय ताकतों की पहुँच से परे है..
एक जो चीज आपकी रचनाओं मे मैने नोट की कि मीडिया के प्रतीकों का ग्रामीण भारत से अंतर्संबंध बड़े स्वाभाविक तरीके से उभर के आता है आपकी रचनाओं मे..चाहे वो गुड्डन का रेडियो हो या लल्लन का अखबार..दृष्टिपटल के परे घटने वाली घटनाओं पर एक परिवार के रिएक्शन को दर्शाने के लिये मीडिया का यह बिम्ब बहुत प्रभावी बन पड़ता है...
कभी भी नही ..एक माँ जो सच में माँ है कभी भी ऐसा नही कर सकती ममता और मोह ये ऐसे शब्द है जिसे आदमी शायद ही छोड़ पाए और यही जुड़े है माँ और उसके संतान के बीच अगर ऐसा विरले होता है तो उसके पीछे भी बहुत बड़ी मजबूरी होती है मगर भी मन मान ले की यह हक़ीकत में है बड़ा ही मुश्किल है..
सीधी-साधी परंतु बहुत ही भावपूर्ण कविता..मनीष जी इस सार्थक कविता के लिए बहुत बहुत बधाई
मनीष जी!
आपकी रचना पर टिप्पणी करना मेरे बस में नहीं है। खुशी इस बात की हुई कि आपकी रचनाएँ इस मंच पर वापस आ गईं, परंतु खुशी अभी अधुरी हीं है। पूरी खुशी तो तब मिलेगी जब अपनी कविता आप खुद पोस्ट करेंगे और टिप्पणियों को पढेंगे।
शैलेश जी!
आप मनीष जी की कविताएँ तो ले आएँ, कभी मनीश जी को भी ले आईए। उनके बिना यह महफ़िल सूनी है।
-विश्व दीपक
हाँ...
इसे कहते हैं धमाके दार इंन्ट्री!
वाह, मनीष जी... वंदेमातरम.
apne shabdon se aapne jo drishya upasthit kiya hai...aisa laga nahi ki kavita "padh" rahi hoon...main to kavita "dekhti" rah gayee...grameed parivesh ki aisi vyakhya aapki hi kavita mein padhne ko milti hai...
बिट्टन के आँख में काजर
और बिट्टन आँख मुचमुचा के
भेभियाने लगते हैं
रख देती है, बीच आँगन में पीढ़ा और पानी
जबकि बाबूजी
अभी नहाये भी नहीं है
bahut badhai...
मनीष जी, आपको लिन्ग भाव का शायद ठीक ग्यान नहीं है , खबर, कोख( कोंख नहीं )स्त्री लिन्ग हैं --छपी व लगी होना चाहिये । बेंच भी नहीं-बेच होगा।
---लालू की बिहारी हो तो कोई बात नहीं ।
बहुत अच्छी... बल्कि यह कहूंगी आज के परिवेश को ध्यान मे रख कर रची गई एक सार्थक रचना..आज कोख के सौदाईयों ने इसे व्यापार बना दिया है किन्तु उस मां से पूछा जाय जो मजबूरी मे कोख का सौदा तो कर लेती हैं लेकिन ममता का कदापि नहीं!प्रेरणादायी रचना के लिए मनीष जी बधाई!
You have a great blog here! would you like to make some invite posts on my blog?
Rusforum.com
Information
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)