हिंद-युग्म के पाठक सत्यप्रसन्न जी से भली-भाँति परिचित हैं। इनकी कविताएँ हिंद-युग्म पर लम्बे समय से प्रकाशित हो रही हैं और ये जून 2010 मे यूनिकवि भी रह चुके हैं। इनकी छांदस कविताओं को पाठकों की विशेष सराहना मिलती रही है और इनकी कविताएँ यूनिकवियों की प्रतिनिधि कविताओं के प्रकाशित संकलन ’संभावना डॉट कॉम’ का हिस्सा भी बनी हैं। इनकी पिछली कविता जुलाई माह मे प्रकाशित हुई थी। अक्टूबर माह मे इनकी प्रस्तुत कविता ग्यारहवें स्थान पर रही है।
कविता: यह देवालय का छल है !
कितनी आशंकाएँ मन में;
घेर रहे कितने संशय।
मेरी ही परछाई मुझसे;
पूछ रही मेरा परिचय।
फटते और बरसते हर पल;
भय के स्याह घने बादल।
जला रही खुद मेरी सांसें;
बनकर मुझको दावानल।
हर रिश्ते पे शक होता है;
संदेहों में हर यारी।
रात जाग कर करता हूँ मैं;
अपनी ही पहरेदारी।
है उन्माद हवा में कैसा,
कितना ज़हरीला मौसम।
घोंप रहा है खंजर वो ही;
जो कल था मेरा हमदम।
है निर्दोष आचमन जिसमें;
केवल जल, तुलसीदल है।
बता रहा भय मेरा मुझको'
यह देवालय का छल है।
मैं रहता हूँ वहाँ; जहाँ है,
विश्वासों की बंद गली।
मेरे अपने हाथों में है;
मेरी ही ग़रदन पतली।
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
“कितनी आशंकाएँ मन में;
घेर रहे कितने संशय।
मेरी ही परछाई मुझसे;
पूछ रही मेरा परिचय।“ अत्यंत सुन्दर अभिव्यक्ति है ये ! यह जान कर बहुत आश्चर्य हुआ है कि इतनी सुन्दर रचना को केवल ग्यारहवां स्थान ही मिल पाया है. वैसे मुझे निर्णायक मंडल की परख पर तनिक भी संदेह नहीं है क्योंकि अंतिम निर्णय तो उन्हीं का होता है न !
satya prashan , sambhvnao ke nahi safal kavita ke kavi hai.
unki chandh vadh kavita ik gujra jamana yaad dilati hai,jeevan ki lay bhi unki kavita ke lay se mail khati hai.
badhayee
सुन्दर अभिव्यक्ति है
“कितनी आशंकाएँ मन में;
घेर रहे कितने संशय।
मेरी ही परछाई मुझसे;
पूछ रही मेरा परिचय।“
sunder likha hai
फटते और बरसते हर पल;
भय के स्याह घने बादल।
जला रही खुद मेरी सांसें;
बनकर मुझको दावानल।
bahut hi achchhi lines hain
badhai
rachana
“कितनी आशंकाएँ मन में;
घेर रहे कितने संशय।
सुन्दर रचना ।
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