बड़ी होती बेटियों पर प्रवेश सोनी की कविता अभी आपने पढ़ी है। प्रतियोगिता की दसवीं कविता भी कुछ ऐसी ही बात को जुदा अंदाज मे आगे बढ़ाने का प्रयास करती है। रचनाकार देवेश पांडे यूनिप्रतियोगिता के नियमित प्रतिभागी रहे हैं और उनकी कविताएँ पिछली प्रतियोगिताओं मे भी स्थान बनाती रही हैं। इनकी पिछली कविता जून माह मे प्रकाशित हुई थी। प्रस्तुत कविता लडकियों के जीवन मे उपस्थित रिक्त स्थानों को ’पतंग’ और ’छत’ के दो प्रतीकों के बहाने चित्रित करने की कोशिश करती है।
पुरस्कृत कविता: लड़कियाँ
(१)
सद्दी से 'जोत' बाँधती है
मांझा से उड़ाती है
बच्चों से ’छोडड्या’ लेकर
दूर आसमां में उड़ाती है
कभी इकतरफा भागे तो
कन्नी भी लगाती है
बड़ी सी पूँछ लटकाकर
खुद ही मुस्कराती है
पड़ी जो पेंच दूजे से
ढीलती है, लड़ाती है
अरे! वो काटा, वो काटा
करके ताली बजाती है
धीरे से झाखड में फसाती है
लाड़ से लाड़ी लाती है
बचाकर आँख लोगो से
वो ’कुटकी’ मार जाती है
कभी ठुनकी कभी शै दे
अंगुलियों पर नचाती है
वो लड़की सबसे छुप-छुपकर
पतंगे खूब उड़ाती है
***
(२)
सभ्य घरों में भाई के साथ
गली-क्रिकेट न खेलने को विवश की गयी
लड़कियाँ बैटमिंटन खेलने, रस्सी कूदने
छत पर जाती है
स्कूल-कालेजों के बंद रहने पर
इसको उसकी बातें बताने
उनकी सुनने अपनी सुनाने
नए सैण्डिल पहने पैर
अनायास ही छत की सीढ़ियाँ लाँघ जाते है
अपने ही वजह से टकराती साइकिले
और घर के चक्कर लगाते लड़कों को
ठोकर खाकर गिरते देखने,
एक दूसरे को कोहनी मारती लड़किया
अपने लड़की होने का अहसास पाने
छत पर जाती है
आस-पास के किसी छत पर
सुबह से शाम एक कोने में खड़े
किसी ‘विशेष’ बंदर को
अदरख का स्वाद चखाने
लड़किया छत पर जाती है
आफिस के काम को घर लाये
पति का ध्यान जब नई चूडियों पर नही जाता
तो बोझिल गृहस्थी की गाड़ी के पहियों में
ग्रीस डलवाने, लड़कियाँ छत पर जाती है
रोज सुबह सूरज को अर्ध्य देने,
घर के गीले कपडे सुखाने
और अपनी सूखी भावनाएँ आर्द्र करने
आचार-मुरब्बे को धूप दिखाने
और बतरस का खट्टा-मिट्ठा स्वाद लेने
लड़कियाँ छत पर जाती है
मुंडेर, खिड़कियाँ और छत
सभ्यता की चारदीवारी में बंद लड़कियों को
समाज से जोड़ने की कड़ी है ।
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पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुंडेर, खिड़कियाँ और छत
सभ्यता की चारदीवारी में बंद लड़कियों को
समाज से जोड़ने की कड़ी है ।
बहुत खूब ..
शायद यही सच है
बेहतरीन शब्द रचना ।
बहुत अच्छी और मजेदार कविता है.. मुस्कुराने को बरबस कर रही है.. :))
Achchi Kavita hai.. kuch panktiya bahut pasand aayi..
“अपने ही वजह से टकराती साइकिले
और घर के चक्कर लगाते लड़कों को
ठोकर खाकर गिरते देखने,
एक दूसरे को कोहनी मारती लड़किया
अपने लड़की होने का अहसास पाने
छत पर जाती है” ऐसा प्रतीत होता है कि यह कविता “रहस्यमयी प्रेम कथाओं वाले मित्र” से कुछ अधिक भिन्न नहीं है. संभव है कि यह हाल ही में हुए निर्णायक मंडल की सोच में किसी क्रांतिकारी परिवर्तन का सूचक हो.
सखी जो खुद थी कभी नव परणीता ,आज है दुल्हन लाई
खुशियाँ भर निज अंचल में ,उमंग है उसके अंग अंग समाई
नव उल्लास है चहुँ ओर, ख़ुशी से वो है न फूली समाई
बेटे का सेहरा, नव वधु आगमन वर्षो से थी जो आस संजोई
आ ही गया वो शुभ दिन सखी आज कामना हुई पूरन
जैसा पाया पति संग तुमने लाड -प्यार, इज्जत और सम्मान
देना सर्वदा बेटे- बहू को वैसा ही दुलार और सम्मान
हँसाना -मुस्कराना, रूठना- मानना , चहकना और खिलखिलाना
यही है इस पवन रिश्ते की गहराई, इसको यूँ ही निभाना
हमारी है दुआएं दिलो जान से फूलें- फलें, सपरिवार यह जोड़ी
'दूधो नहाओ' पूतो फलो' यह आशीर्वाद है बहुत पुराना
अब तो बस फेसबुक पर मैसेज से है इस जोड़े को समझाना
मैसेज कब करना है ? बाद में बताएँगे .........................
कभी कभी जीवन में आ जाते हैं
अचानक ऐसे मोड़
जहाँ पर आप, सिर्फ आप
रह जाते हैं अकेले
घर, परिवार, पिता, बहन सब है आसपास
पर मन है निशब्द, मौन और है मद्विम साँस
भीड़ से दूर, एकांत, शांत, अकेलापन
है पत्तियों की सरसराहट, झींगुरो की आहट
मन को हैं सब यही कुछ लुभाते, बहलाते
और मै इन सबको अपने बीच में पाकर
हूँ अत्यंत खुश और यही है मन लुभाते
कियूँ की यह सब साथ ही हैं जख्मो को सहलाते
फूल, पल्लव, हरियाली यही है मेरा जीवन
नित नव जीवन, यही देता है 'साकेत' का घर आँगन ..
नारी की व्यथा ?
जीवन के अतीत में झांकने बैठी मै
पायी वहां दर्दनाक यादें और रह गयी स्तब्ध मै
समूचा अतीत था घोर निराशा और अवसाद में लींन
कुछ भी न था वहां खुशनुमा बन गई जिंदगी उत्साह हीन
बदरंग हो चुके थे सपने जीवन पथ था शब्दहीन
बच्चे भर रहे थे नए रंग, भबिष्य ने बुने सपने
यादें कर दी धूमिल सजा दिए रंग जीवन में अपने
मै आज तक ढो रहीं थी उन लाशो का गट्ठर
तिल तिल कर जी रही प्रतिदिन मर मरकर
शर्म और हया का उतार फेंका झीना आवरण
बच्चो ने था ठहराया सही यही मेरी तपस्या का है फल
किसी बक्त भी अगर गिर जाती थी मै नजरो में संतान की
जी न पाती उन लाशों के भी कई गुना बोझ से
आज सर उठा कर जीती हूँ पाती हूँ उस दर्द से मुक्ति
नारीं जीवन की यही त्रासदी, फिर भी है वो दुर्गा शक्ति
पहले कुचली गई अपनों से, फिर सहा संतापं
यहाँ दबकर जमाना भी देता है कभी कभी घातक सा ताप
बरसो से यही है नारी की पीड़ा, भोगा इसको कभी सीता ने
सीता ने दी अग्नि परीक्षा, और अंतिम बेला पाया ढेर तिरस्कार
चली आ रही है यही परीक्षा, तिरस्कार और संताप
पाई न इससे कभी मुक्ति नारी हो तुम कैसी शक्ति
पूजी जाती अम्बा, दुर्गा और कहलाती पूर्ण शक्ति
कयूं नहीं मिलता नारी को सम्मान कियूं होता हर पथ पर तिरस्कार ????
bahot hi achi rachna.badhai
रोज सुबह सूरज को अर्ध्य देने,
घर के गीले कपडे सुखाने
और अपनी सूखी भावनाएँ आर्द्र करने
आचार-मुरब्बे को धूप दिखाने
और बतरस का खट्टा-मिट्ठा स्वाद लेने
लड़कियाँ छत पर जाती है
kya sunder barnan
kohni marne wali baat to bahut hi sahi likha hai
badhai
rachana
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