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Tuesday, November 16, 2010

तुम कब आओगे पता नहीं


सुधीर गुप्ता चक्र की कविता अक्टूबर माह मे पाँचवें पायदान पर रही है। इनकी एक कविता जुलाई माह मे भी शीर्ष दस मे रही थी। प्रस्तुत कविता प्रतीक्षा जैसे बहुप्रचिलित विषय को किसी इंजीनियर जैसी संवेदनाओं से परखने की कोशिश करती है।

पुरस्कृत कविता: तुम कब आओगे पता नहीं

तुम
कब आओगे
पता नहीं।
साठ डिग्री तक
पैरों को मोड़कर
और 
पीठ का
कर्व बनाकर
दोनों घुटनों के बीच
सिर रखकर
एक लक्ष्य दिशा की ओर
खुले हुए स्थिर पलकों से
बाट जोहती हूँ तुम्हारी
तुम
कब आओगे
पता नहीं।
दोनों पलकों के बीच
तुम्हारे इंतजार का
हाइड्रोलिक प्रेशर वाला जेक
पलक झपकने नहीं देता।
दूर दृष्टि का
माइनस फाइव वाला
मोटा चश्मा चढ़ा होने पर भी
बिना चश्मे के ही
दूर तक
देख सकती हूँ मैं तुमको
लेकिन
तुम
कब आओगे
पता नहीं।
एकदम सीधी
और
शांत होकर चलने वाली
डी सी करण्ट की तरह
ह्रदय की धड‌कन का प्रवाह
तुम्हारे आने की संभावना से
ऊबड़-खाबड़
ए सी करण्ट में बदलकर
ह्रदय की गति को
अनियंत्रित कर देता है
लेकिन
जब संभावना भी खत्म हो जाती है
तब लगता है
ज्यामिति में
अनेक कोण होते हैं
इसलिए
क्यों न लम्बवत होकर
एक सौ अस्सी डिग्री का कोण बनाऊं
और
थक चुकी आंखों को
बंद करके सो जाऊं
क्योंकि
तुम
कब आओगे
पता नहीं।
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पुरस्कार -  विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।

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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

स्वप्निल तिवारी का कहना है कि -

Bahut hi achhe prayog kiye hain sudhir ji ne..par is prayog se kavita thodi machenical bhi lag rahi hai..lekin ek sampurn rachna ke taur par achhi lagi mujhe... Badhai aur shubhkamnayen.. :)

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

“दोनों पलकों के बीच
तुम्हारे इंतजार का
हाइड्रोलिक प्रेशर वाला जेक
पलक झपकने नहीं देता।
दूर दृष्टि का
माइनस फाइव वाला
मोटा चश्मा चढ़ा होने पर भी
बिना चश्मे के ही दूर तक
देख सकती हूँ मैं तुमको
लेकिन तुम कब आओगे
पता नहीं।“ बड़े अजीबो-गरीब ढंग से लिखी इस अटपटी कविता को लिखने का क्या उद्देश्य रहा होगा, इसका अनुमान लगाना काफी कठिन है. परन्तु हिंद युग्म जैसे पोर्टल पर एक कविता के बहाने अल्लम गल्लम अंग्रेजी शब्दों को नाहक घुसा देने से न केवल भाषा की पवित्रता नष्ट होती है अपितु हिन्दी एक टपोरी जुबान की तरह प्रभावहीन भी लगने लगती है. मैं यूनिकवि निर्णायकों का बहुत सम्मान करता हूँ परन्तु इस कविता की भाषा कम से कम मुझे तो बहुत अधिक अखर रही है. समय आ गया है कि एक बार पुनः विचार किया जाए कि हिंद युग्म पर हिन्दी कविता हो या अनावश्यक ठूंसे गए अंग्रेजी शब्दों से बनी तथाकथित हिन्दी कविता? अश्विनी रॉय

M VERMA का कहना है कि -

ज्यामिति और भाव समांतर रूप से सजीव कर दिया.
सुन्दर प्रयोग की कविता

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

इस पूरे वर्णन में कविता कहाँ है?

सदा का कहना है कि -

बेहतरीन ।

Anonymous का कहना है कि -

क्या यह भी कविता है...? चलिए... शैलेश भाई, आपके जजेज़ की ‘जजता’ और उनके अद्‌भुत काव्य-बोध को सलाम कर लेता हूँ!

priya का कहना है कि -

BAHUT ACCHHA LIKHTE H AAP .AAP K SATH HUMARI SHUBHKAMNAYE HAMESHA H

PRIYANKA GUPTA
DABRA

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