प्रतियोगिता की बारहवीं कविता के रचनाकार डॉ अनिल चड्डा यूनिप्रतियोगिता के नियमित प्रतिभागियों मे से एक हैं। इनकी कविताएं हिंद-युग्म पर पहले भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी पिछली कविता फ़रवरी माह की प्रतियोगिता मे छठे स्थान पर रही थी।
ग़ज़ल: ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते
ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते,
रस्ते हमेशा तो नहीं आसाँ रहते।
मरने पर तो ज़मीं नसीब नहीं
जीते-जी कहो फिर कहाँ रहते।
शौक फर्मा रहे वो आग से खेलने का,
आबाद कब तक ये आशियाँ रहते।
अपना बना कर ग़र न लूटते हमें,
जाने कब तक मेरे राजदाँ रहते।
काबू में रहती मन की बेईमानी अगर,
गर्दिशों में भी हम शादमाँ रहते ।
सीखा न था मर-मर के जीना कभी,
आँधियों के हम दरमियाँ रहते ।
लाख सामाँ करो ’अनिल’ की बर्बादी का,
हम तो खुश रहते, जहाँ रहते ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
9 कविताप्रेमियों का कहना है :
शानदार
“अपना बना कर ग़र न लूटते हमें,
जाने कब तक मेरे राजदाँ रहते।“ बेमिसाल शे’र है जनाब आपका! बहुत अच्छे अश’आर लिखे हैं आपने...बधाई. अश्विनी रॉय
अच्छा लिखा है...
मगर ग़ज़ल कहीं से भी नहीं है.....
दुनिया भर के खटके हैं...
khayaal achhe hain craft me bahut kami hai ....manu ji se sehmat
अलग अंदाज़ है
बधाई
_________________________________
एक नज़र : ताज़ा-पोस्ट पर
पंकज जी को सुरीली शुभ कामनाएं : अर्चना जी के सहयोग से
पा.ना. सुब्रमणियन के मल्हार पर प्रकृति प्रेम की झलक
______________________________
मनुजी एवँ आतिशजी,
यदि आप कमियों के बारे में मार्गदर्शन भी कर देते तो मैं उन्हे सुधारने की कोशिश करता ।
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
nirala andaaz...
रस्ते हमेशा तो नहीं आसाँ रहते।
आसाँ रास्ते की तलाश क्यूँ है? सुन्दर लिखा है
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)