पिछले शनिवार 'डॉयलॉग' काव्य गोष्ठी में युवा कवयित्री सुश्री विपिन चौधरी को सुनने का मौका मिला। विपिन की शैली और कथ्य की गंभीरता में लगभग 1800 का बदलाव आया है। जब मैं 2007-2008 में उनकी हिन्द-युग्म पर प्रकाशित कविताएँ पढ़ता हूँ और हाल की कविताएँ पढ़ता हूँ तो पाता हूँ कि इस कवयित्री ने बहुत कम समय में अपनी काव्यप्रतिभा को एक बड़ी ऊँचाई दे दी है। जहाँ आज के बहुत से युवा कवि अपनी कविताओं में 80 के दशक के हिन्दी फिल्मों के डायलॉग और मुहावरों का प्रयोग कर रहे हैं, वही विपिन चौधरी कविता को संवेदनाओं की नई ज़मीन दे रही हैं। इनकी कविताएँ थोड़ी-बहुत नॉस्टेलजिक होते हुए भी समकालीन है। प्रवाह भी प्रसंशनीय है। आप पढ़ें और खुद तय करें।
1. रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध
पीले रंग को खुशी की प्रतिध्वनी के रूप में सुना था
पर कदम-कदम पर जीवन का अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पड़ने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया
तब लगा कि हर चीज़ को एक टैग लगा कर कोने में रख दिया जाता है
जो बिना किसी विशेषण के अधूरी मान ली जाती है
अपनी ही कालिमा से लिप्त अधूरा इंसान भी
बिना विशेषण के सामने की किसी अधूरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है
नीले रंग की कहानी भी इसी तरह
मुझे देर तक खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुड़ा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया
यह लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर
इतिहास की लालिमा की ओर लपका फिर वापिस लौटा
लहुलुहान हो कर
कुछ ही दूरी पर खड़ा केसरी रंग प्रतयांचा पर चढ़ा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु-सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिट्टी में गुंथा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में
मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ-कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसी ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ठीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।
2. टाँड़ पर चरखा
कुछ चीज़ें जब अपना दाना-पानी समेट कर
घूमना बंद कर देती हैं
तो हमसे निश्चित दूरी बना लेती हैं
उनसे तभी तक स्नेह बना रहता है जब तक वे हमारे हाथ में रहती हैं
हाथों से छूटते ही सीधे गर्त में चली जाती हैं
फिर उनसे सिर्फ यादों को माँझने का काम ही लिया जा सकता है
इस ख्याल को और पुख्ता बनाया
अँधेरे-ओबरे में रखे उस चरखे ने जो
आँखों से दस उँगल की ऊँचाई पर
ढेर सारे लकड़ी के पायों, जेली और घर की दूसरी गैरजरूरी चीज़ों के साथ ही
समेट कर वहाँ रख दिया गया था जहाँ
किसी का हाथ आसानी से ना पहुँच सके
नयी चीजों से दोस्ती कर
हम पुरानी चीजों को धूल के हवाले कर देते हैं
तो वे कई कोण बना कर हमारी आत्मा मै घर कर लेती है
वैसे भी ज्यादा दिनों तक जो चीज़ें हमारे जहन में अटकी रह जाती हैं
वो धीरे-धीरे वो ना बुझने वाली प्यास में तबदील हो ही जाती हैं
तो चरखे की आँख में ठहरा हुआ पानी, जाले और ढेर सारी मकड़ियाँ थी
मगर अब भी वह बहुत कुछ याद दिला सकता था
उसने दिलाया भी
गावँ के घर का लम्बा-चौड़ा आँगन, कई बीघा खेत, झाड़ियाँ, बटोड़े
चक्की, बिलोना, आधा चाँद की लुका-झिपी
मँगलू कुम्हार के हाथों बनी बाजरे की खिचड़ी, जिससे बचपन का सबसे घना हिस्सा आबाद हुआ करता था
सूरज के देर से छिपने और जल्दी ढल जाने वाले और
कभी उदास न होने वाले दिन
हँसी-ठठे के वे रंग जो अब तक नहीं छूट पाए है
जीवन के पक्केपन से हमारी यारी-दोस्ती नहीं हुयी थी तब
ना ही हमारी नाक इतनी लंबी हुई थी जो गोबर की महक से टेड़ी हो जाये
दूध दोहते वक़्त गाय और बछड़े के रिश्ते का नन्हा अकुंर कहीं भीतर पनप जाया करता था
उसी आकर्षण मै बंधे हम देर तक बछड़े को उसकी
माँ का दूध पीने देते
और इसपर घर वालों की डाँट खाते, यह हररोज का क्रम था
पंचायत की ज़मीन पर लगे बेरी और नीम के पेड़ों पर
उछल-कूद दोहरा-तिहरा मज़ा दिया करती थी
आज की तरह चरखा हमें
चौंकाता नहीं था
मन हरा कर देता था
उस हरेपन की हरितिमा के घेरे में चक्की पर गेहूँ पिसती माँ
और भी नज़दीक आ जाती थी
बिलौने से मक्खन ले हम खेतों की ओर निकल पड़ते थे
शाम को पाईथागोरस की थ्योरम और E=MC2 का फ़ॉर्मूला याद करते करते हम
अपने रिश्तेदारों की कूटनीतियाँ स्वाहा कर देते थे
रासायनिक क्रियाएं हमारें भीतर उत्पात मचाती रहती थी
और हम समझ नहीं पाते थे
कि हमारी गलती क्या है
चरखे के साथ ही माँ के वे दिन भी याद आये
जब वह अपने दुख को इतनी मुश्तैदी से सूत में लपेट दिया करती थी
कि हम लाख कोशिशों के बाद भी उसके चेहरे पर आँसू का एक भी कतरा नहीं ढूँढ़ पाते थे
अब तो वह दुख तो इतना आगे निकल गया है कि उसे पहचाना पाना मुमकिन नहीं
मुमकिन है तो बस जीवन और बीते वक्त की जुगलबंदी की वे यादें
चाह कर भी बचपन और आज की उम्र का फासला गुल्ली डंडे से पूरा नहीं किया जा सकता
ना ही चरखे को वही पुराना रिश्ता जुड़ सकता है
चेतना के हज़ारो धागे चरखे से जुड़े होने के बावजूद
उसे नीचे उतारने के ख्याल से ही कँपकपी चढ़ने लगती है
कहाँ रखेगे इसे
पाचँवे माले के सौ गज के फ्लैट में
नहीं संभव ही नहीं
फिर से चरखा यहीं छूट जाता है
फिर से कोई हमसा ही अभागा
इस चरखे के ज़रिये यादों की धूल झाड़ेगा
पर संदेह इसमे है कि क्या यादों की यह धार
जब भी आज सी ही तेज़ रह पाएँगी।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
4 कविताप्रेमियों का कहना है :
sahi hi lag rahaa hai...
fir kabhi aayeinge...
sahi hi lag rahaa hai...
fir kabhi aayeinge...
पर संदेह इसमे है कि क्या यादों की यह धार
जब भी आज सी ही तेज़ रह पाएँगी।
सुन्दर शब्द रचना ।
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