सितंबर माह की प्रतियोगिता मे आशीष पंत की कविता तीसरे पायदान पर रही है। पिछले कुछ माहों से प्रतियोगिता के नियमित प्रतिभागी रहे आशीष हिंद-युग्म पर पहले भी प्रकाशित हो चुके है। इससे पहले इनकी एक कविता ने जून माह मे सोलहवाँ स्थान बनाया था।
पुरस्कृत कविता: परजीवी
अकेलापन ले जाता है
अपने ही आप से दूर
खुद से बाहर होकर
खुद में झाँकने की
ज़रूरत नहीं मालूम होती
दूर से ही दिखती हैं अपनी
खुशियाँ खेलती, रंजिश कांपती
ख़्वाब आँखें मलते,
उबासी लेता गम और
करवट लेती इच्छाएं
साफ़ दिखता है कि
मेरी ही सोच बढाती है उनको
जब वो चलती है उन में
रगों में खून के सतत
बहाव की तरह
हर विचार एक
ऊर्जा का संचार करता है
इनमें से किसी में
और वो और बढ़ते हैं
ताल में पत्थर फैंकने से
निकली तरंगों की तरह
जब मैं बाहर हूँ इन सबके
तो ये सब मेरे नहीं हैं
कहीं और के हैं
जो मुझ में जी रहे हैं
एक परजीवी की तरह
और मैं इनका परिचारक
ता उम्र जीता रहा हूँ
इनके पोषण के लिए
इन्होने शनै: शनै:
मारा है मुझे
मेरी सोच को
नाभि रज्जू कि तरह
इस्तेमाल करके
इन्होने बूँद बूँद
चूसा है मुझे
पर ये सब मैं नहीं
तो मैं कौन हूँ
ये मुझसे नहीं
मैं इनसे नहीं
तो मैं किस से हूँ
यही विचार
तोड़ देता है
मेरा बुलबुले सा अकेलापन
और मैं 'जी' उठता हूँ
परजीवियों के जीने के लिए
नहीं, मैं मरने लगता हूँ
फिर से |
शायद मरने लगना ही
जीने भर का नाम है|
मैं जानता हूँ
पानी में बढती तरंगों की तरह ही
एक दिन ये परजीवी भी
इतने बढ़ेंगे
कि अपना अस्तित्व खो देंगे
संसृति के इसी ताल में
और फिर से कोई एक और पत्थर फ़ेंक देगा।
_________________________________________________________________
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
6 कविताप्रेमियों का कहना है :
परजीवी जब पनपता है तो घर बना लेता है अपने पोषक के ही जिस्म पर.
सुन्दर रचना
नए प्रतीकों और नए भावों को लेकर रची गई एक सुंदर रचना...शब्दों और भावों का अच्छा संयोजन...बधाई।
आशीष बाबू को पढ़कर सुखद अनुभूति हुई।
सुखद इसलिए भी कि आज जिस तरह से (न जाने कितने ही) युवाओं को भटकाव-भरी राहों का पथिक बनते हुए देखा जा रहा है, ऐसे में आशीष पंत का सृजन-‘पंथ’ पर अग्रसर होकर चिंतन-मनन के सुन्दर धरातल पर खड़ा होना सुखद नहीं तो और क्या कहा जाएगा ?
पेशे से अभियंता (इंजीनियर) आशीष पंत की यह कविता शब्दों-भावों-विचारों की सुन्दर अभियांत्रिकी का एक प्यारा-सा नमूना है। ...बधाई आशीष बाबू!
आशीष द्वारा सॄजित निम्नांकित बिम्ब सद्यस्कता से परिपूर्ण है, लेकिन यहाँ एक मुद्रण-दोष दिखाई दे रहा है- ‘नाभि-रज्जू’ शब्द में।
"...मेरी सोच को
नाभि रज्जू कि तरह
इस्तेमाल करके
इन्होने बूँद बूँद
चूसा है मुझे..."
यहाँ सही वर्तनी(स्पेलिंग)होगी- ‘नाभि-रज्जु’ यानी umbilical cord.
द्वितीय, यह कि ‘सोच’ शब्द को हम लोग प्रायः ‘स्त्रीलिंग’ रूप में प्रयोग करते हैं (ऊपर देखें- आशीष जी ने भी यही किया), जबकि यह शब्द ‘पुल्लिंग’ है।
खैर... ये सब छोटी-छोटी बातें हैं; इनसे कविता का क़द तो बहुत छोटा नहीं होता, लेकिन कमोवेश मज़ा किरकिरा हो जाता है।
आशा है कि आशीष भाई इस पर ध्यान देंगे... तथास्तु !
सोच और भावनाए जो हम में पनप रही है , परजीवियों की तरह , जिन्दा हैं उनके लिए.. ख्याल अच्छा है और जिस बारीकी से इसको बयाँ किया बहुत खूब है ..
बहुत ही सुन्दर शब्द, बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
aashish ji,
saral shabdon me bhavon ki sunder abhivyaki ke liye sadhuvad
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)