कविता जहाँ बाहर की निरंकुश निस्तब्धता को तोड़ने के लिये जरूरी हथियार है तो अपने अंदर के निविड़ एकांत को टटोलने का साधन भी है। हिंद-युग्म पर हम समय-समय पर सामयिक और महत्वपूर्ण कवियों से पाठकों का तअर्रुफ़ कराते रहते हैं। इसी कड़ी मे एक अहम् नाम मोहम्मद शाहिद अख्तर का भी है।
21 मार्च 1962 मे गया मे जन्मे अख्तर साहब ने सिंदरी (धनबाद) से इंजीनियरिंग शिक्षा हासिल की थी मगर वामपंथी राजनीति से जुड़ कर सामाजिक कार्यकर्ता बन गये। मुंबई मे झुग्गीवासियों और श्रमिकों के बीच काम करते हुए जीवन की पाठशाला से काफ़ी कुछ सीखने को मिला तो अहसासों को धारदार बनाने मे मदद भी मिली। वर्तमान मे प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया मे वरिष्ठ हिंदी पत्रकार के रूप मे कार्यरत शाहिद जी की अनुवाद पर दो पुस्तकें और हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी मे तमाम सामाजिक-सामयिक-साहित्यिक लेख आदि भी प्रकाशित हुए हैं। अपने बारे मे उनका कहना है कि "हर शख्स की तरह मेरे भी गम-ए-जानाँ हैं और साथ ही गम-ए-दौराँ भी अपनी शिद्दत के साथ है। अपने इसी गम-ए-दौराँ और गम-ए-जानाँ को अपनी नज्मों और कविताओं में अभिव्यक्त करने की कोशिश करता हूँ। बेशक मैं यह जानता हूँ कि:
बस कि दुश्वा्र है हर बात का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना (ग़ालिब)
दूरभाष: 9971055984
पेश-ए-नज़र हैं उनकी कुछ कविताएँ।
तन्हाइयाँ -1
तुम नहीं तो क्या
तुम्हारी याद तो है
उम्मीद के दरीचे को
खटखटाने के लिए
छोटी-छोटी चीजें हैं
छोटी-छोटी यादें हैं
दिल की वीरान महफिल को
सजाने के लिए
जिंदगी की रहगुजर पर
मैं अकेला कब रहा
जब कोई हमसफर ना रहा तुम रही,
तुम्हारी याद रही
इक काफिला बनाने के लिए
याद का पंछी
मेरे दिल के कफस से
उड़ कर भाग नहीं सकता
ये दिल जो मेरा भी कफस है
तन्हाइयाँ-2
सहरा-ए-जीस्त में जब
यादों के फूल खिलते हैं
आंखों से उबलते हैं
गौर-ए-नायाब के
दिल की बस्ती के परे
लहलहाती है जफा की फस्लें
ढलते सूरज की सुर्खी से सराबोर
आसमां में तैरते हैं
यास के बादल
उफ्क पर दूर मंडलाती हैं
हसीं दिलफरेब तितलियां
माजी के आइने से झांकते हैं
परीवश चेहरे
जानम तुम क्या जानो
कितना खुशरंग है
यह मंजर
कितना लहूरंग !
ख़ामोशी के खिलाफ
दर्द हो तो
मदावा भी होगा
हमारी खामोशी
जुर्म होगी
अपने खिलाफ
और हम भुगत रहे हैं
इसकी ही सजा
लब खोलो
कुछ बोलो
कोई नारा, कोई सदा
उछालो जुल्मत की इस रात में
आवाजों के बम और बारूद
ढह जाएंगे इन से
जालिमों के किले
(गाजा पर इस्राइली हमले के खिलाफ)
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहम्मद शाहिद अख्तर और उनकी तीन बेहतरीन नज्मों से रूबरू कराने के लिए आभार।
..दर्द हो तो
मदावा भी होगा
हमारी खामोशी
जुर्म होगी
अपने खिलाफ
और हम भुगत रहे हैं
इसकी ही सजा..
..बहुत खूब।
शाहिद अक्तर साहब की तीनों कविताएं खूबसूरत हैं ।
लब खोलो
कुछ बोलो
कोई नारा, कोई सदा
उछालो जुल्मत की इस रात में
आवाजों के बम और बारूद
ढह जाएंगे इन से
जालिमों के किले
Tanhaiyaan ke doosre bhag ne gehra asar kiya..behad umda kavita...
achchhaa likhaa hai...
kahin kahin par faiz ki yaad aayi...
जुर्म होगी
अपने खिलाफ
और हम भुगत रहे हैं
इसकी ही सजा
bahut sunder bhav
dhnyavad itni sunder kavita padhane ke liye
rachana
लब खोलो
कुछ बोलो
बेहतर सन्देश ...
हमारी खामोशी
जुर्म होगी
अपने खिलाफ
और हम भुगत रहे हैं
इसकी ही सजा..
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
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