जितेंद्र ’जौहर’ की कविता सितंबर माह मे तीसरे स्थान पर रही है। हिंद-युग्म के लिये यह उनकी पहली कविता है। जुलाई 1971 मे कन्नौज मे जन्मे जितेंद्र ने अंग्रेजी से परास्नातक एवं बी एड की शिक्षा प्राप्त की है और रेणुसागर (सोनभद्र) मे अंग्रेजी अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। जितेंद्र जी ने गीत, गज़ल, दोहा, समीक्षा, व्यंग्य आदि अनेक विधाओं मे लिखा है। इनकी रचनाओं का टीवी तथा आकाशवाणी पर प्रसारण हो चुका है और काव्य-मंचों पर भी गरिमापूर्ण उपस्थिति रही है। कई काव्य व गज़ल संग्रहों का हिस्सा बन चुके जितेंद्र की रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित होती रहती हैं। अनेक सम्मान एवं पुरस्कार जैसे पं. संतोष तिवारी स्मृति सम्मान, साहित्यश्री (के.औ.सु.ब. इकाई मप्र), नागार्जुन सम्मान, साहित्य भारती, महादेवी वर्मा सम्मान आदि के अतिरिक्त विभिन्न प्रशस्तियाँ व स्मृति-चिह्न प्राप्त हुए हैं।
सम्पर्क: आई आर- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र, (उ.प्र.) 231218
मोबाइल +91 9450320472.
पुरस्कृत कविता: रज्जो की चिट्ठी
दिल के सब अरमान,
हाय! फाँसी पर झूल गये।
पिया! शहर क्या गये,
गाँव का रस्ता भूल गये!
अरसा बीत गया
घर का न हाल लिया कोई।
चिट्ठी लिखी न अब तक
टेलीफोन किया कोई।
भूले से भी
कभी डाकिया आया न द्वारे।
फोन के लिए
मिसराइन से पूछ-पूछ हारे!
होली पे गुझिया को
अबकी तरस गये बच्चे।
बिना तेल चूल्हे पे
पापड़ भून लिये कच्चे!
फटा जाँघिया टाँक-टाँक
कलुआ को पहनाया।
कई दिनों से घर में
सब्ज़ी-साग नहीं आया!
कुल्फी वाला जब
अपने टोले में आता है।
सबको खाते देख छुटन्कू
लार गिराता है!
दलिया के लालच में कल
‘इस्कूल’ गया छुटुआ।
उमर नहीं थी पूरी सो,
‘इडबीसन’ नहीं हुआ !
सही कहत बूढ़े-बुजुर्ग
कि जहाँ जाए भूखा।
किस्मत का सब खेल
राम जी! वहीं पड़त सूखा।
एक रोज बोलीं मुझसे
जोगिन्दर की माईं।
’ए रज्जो ! तोहरे पउवाँ में,
बिछिया तक नाहीं!’
का बतलाऊँ..? मरे लाज के,
बोल नहीं निकरा।
हमरे घर का हाल,
गाँव अब जानत है सिगरा!
सुबह-शाम बापू की रह-रह,
साँस उखड़ जाती।
फूटी कौड़ी नहीं
दवाई जो मैं ले आती!
का लिखवाऊँ हाल,
हाय रे... बूढ़ी मइया का ?
‘कम्पोडर’ का पर्चा,
दो सौ तीस रुपैय्या का!
रोज-रोज की गीता
आखिर किस-किससे गाएँ?
कर्ज माँगने किस-किस के
दरवाजे पे जाएँ?
ठकुराइन पहले ही रोज,
तगादा करती है।
कल बोली,
‘रज्जो.. तू झूठा वादा करती है!’
तू-तड़ाक-तौहीन
झेलकर, बहुत बुरा लागा।
कर्ज-कथा ठकुराइन
घर-घर सुना रही जा-जा।
इससे ‘जादा’ और
‘बेजती’ क्या करवाओगे ?
अम्मा पूछ रहीं हैं,
"लल्ला...घर कब आओगे?"
बापू को
सूती की एक लँगोटी ले आना।
और सभी के लिए
पेटभर रोटी ले आना!
मुन्नू चच्चा से कहकर
ये चिट्ठी लिखवाई।
जल्दी से पहुँचइयो दिल्ली,
....हे दुर्गा माई !
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27 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत अच्छी है!
सुन्दर रचना ..
मनोदशा और भावों के चित्रण का खूबसूरती से निर्वाह हुआ है.
जय दुर्गा माई
सर्वप्रथम
भाई जितेंद्र ’जौहर’ जी को बहुत बहुत बधाई !
… और साधुवाद हिन्द युग्म को एक श्रेष्ठ रचना को सम्मान देने के लिए !
जितेंद्र जी का गीत बहुत भावपूर्ण , सहज संप्रेषणीय और हमारे आस पास का लगता है ।
दलिया के लालच में कल
‘इस्कूल’ गया छुटुआ।
उमर नहीं थी पूरी सो,
‘इडबीसन’ नहीं हुआ !
इससे ‘जादा’ और
‘बेजती’ क्या करवाओगे ?
अम्मा पूछ रहीं हैं,
"लल्ला...घर कब आओगे?"
भाषा की प्रांजलता देखते ही बनती है ।
और भाव सीधे मन में घर करने वाले !
तथा शिल्प सर्वथा त्रुटि रहित !
जितेंद्रजी को अधिक पढ़ने का अवसर नहीं मिला , लेकिन जितना पढ़ा अत्यंत प्रभावित करने वाला लगा ।
पुनश्चः बधाई और मंगल कामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
JITENDRA JI,
BADHAI
BAHUT ACHHEE KAVITA HAI BHAI !!!!!!!!
gaon ki garibi aur majboori ka isse sashakt chitran aur kya ho sakta hai
rachnakar ko rachna ke liye aur aapko prastuti ke liye bahut-bahut
dhanyvad
समाज की पिछली पंक्ति में गिने जाने वाले लोगों के प्रति कवि की संवेदनशीलता इस कविता में मुखर हुई है।...आंचलिक शब्दों के प्रयोग ने कविता की प्रभावशीलता को बढ़ाया है।...बधाई, जौहर जी।
जितेन्द्र जौहर जी की रज्जो की चिट्ठी महज एक कविता नहीं बल्कि शब्दों द्वारा बनाई गई एक आँख है जिससे मैंने रज्जो के मनोभाओं को प्रतक्ष्य देख लिया
सुन्दर
badhiya lagi kavita.. Dil tak pahuchi bina khatkhataye.. Badhai
इस विशाल गणतंत्र में 60 वर्ष से अधिक की हमारी स्वतंत्रता और आज भी रज्जो जिन्दा है कविताओं में, यह सरोकार का विषय है। और अगर साहित्य को आज भी सरोकार है रज्जो से, तो संभावनायें हैं कि एक दिन रज्जो किसी दिन सुखद् अनुभूति का अंश होगी।
देशज शब्दों को सुन्दर तरीके से सजाया गया है जो रचनाकार के परिपक्व शिल्प को दर्शाता है। कथ्य में ज्यादा कुछ नया नहीं है फिर भी रचना बाँधे रखती है।
रचनाकार को बधाई।
sir, for how long you all so called hindi lovers poets will sell the most seelable itom poverty........... just think about it
जितेंद्र जी, आपके जौहर से तो परिचित हूँ, किंतु आज जो बानगी आपने प्रस्तुत की है, उसपर श्रद्धावनत हूँ... एक घटना याद आ गई... अपनी ग्रामीण पोस्टिंग के दौरान, एक दिवस सड़क किनारे चाय की दुकान पर बैठा चाय पी रहा था दोस्तों के साथ. सड़क पार एक जवान औरत, जो उस उम्र में वृद्धा दिखती थी, बर्तन मांज रही थी. मेरे मित्रों ने कहा कि यही काम करके वह अपना और परिवार का पालन पोषण करती है. पति नहीं है उसका, पूछने पर पता चला कि पति दिल्ली में सांसद है और वहाँ उसने एक और औरत रख ली है...
आज आपकी कविता ने उस स्त्री का चित्र मस्तिष्क में पुनर्जीवित कर दिया. आपकी रज्जो से मैं मिल चुका हूँ जौहर साहब और यकीन मानिए वो वैसी ही है जैसा आपने लिखा है. आभार आपका, एक ऐसी रचना से साक्षात्कार के लिए!
bahut achchhaa likhaa hai janaab...
जितेन्द्र जी पत्र- पत्रिकाओं में तो आपकी रचनाओं से परिचय होता रहा है ...आप और अंजुम जी दोनों ही व्यंग प्रधान हास्य कवितायेँ लिखने में सिद्धहस्त हैं .....हिंद युग्म पर आपको देखकर खुशी हुई .....सर्वप्रथम यह स्थान पाने की आपको हार्दिक बधाई .....
रज्जो की चिट्ठी में शब्द विन्यास और भाषा-शैली अद्वितीय बन पड़ी है ....जिसमें विदग्धता और मार्मिकता है .....!!
ढेरों बधाई ....!!sk
marmik,sundar,sarthak aur prasangik kavita.
sadhuvad.
Manoj Bhawuk
www.manojbhawuk.com
bahut sunder likha hai jitni bhi tarif ki jaye kam hai .
ek ek shabd drishya utpan karta hai
bahut bahut badhai
rachana
सबसे पहले ‘हिन्द-युग्म’ के भाई शैलेश जी एवं उनके द्वारा नामित ‘विद्वान निर्णायक-मण्डल’ के प्रति हृदय के अंतर्तम गह्वरों से आभार कि उन्होंने ‘रज्जो की चिट्ठी’ को भी यथोचित प्यार-दुलार दिया।
मैं शीघ्र वापस लौटूँगा- ‘हियु’ के समस्त सम्मानित टिप्पणीकारों की उस सहृदयता एवं सद्भावना के प्रति अपनी सहज हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ...जो उन्होंने ‘रज्जो की चिट्ठी’ के प्रति दर्शायी। यक़ीनन आज के व्यस्त दौर में यदि कोई किसी के लिए अपनी दिनचर्या में से समय निकालकर सदाशयता प्रकट करता है तो वह व्यक्तित्त्व ‘आभार’ का सच्चा सुपात्र है।
फिलवक़्त श्री/श्रीमती/सुश्री (पता नहीं, कौन-सा आदरसूचक शब्द चुनूँ...?) क्योंकि एक Anonymous (बे-नामी)जी ने अपने उद्गार में कोई संकेत ही नहीं छोड़ा कि वे 'He हैं या कि 'She'.
बहरहाल इस ‘लिंग’ चर्चा से दूर मैं उनके कथन पर आता हूँ। उनका कथन नीचे Copy & Paste कर रहा हूँ:
>>>>>>>>>>>>>>>
Anonymous said...
"sir, for how long you all so called hindi lovers poets will sell the most seelable itom poverty... just think about it"
>>>>>>>>>>>>>>>>
चूँकि बे-नामी जी द्वारा मुद्दा अँग्रेज़ी भाषा में उठाया गया है, अतः अँग्रेज़ी में ही उत्तर देना ज़रूरी समझता हूँ। सो प्रस्तुत हूँ-
Dear Sir/Madam (Whatever you are, plz choose one term of address for yourself suited to your gender.),
In a democratic country like ours, all of us have a freedom of speech. Keeping this in view, I salute you & your comment. There must be some special notion / opinion in your mind which motivated you to say what you said.
Pursuant to your above-posted comment, the very first thing I would love to say is that you didn't reveal the themes or subjects which a Hindi poet should write poems on.
Secondly, if you are able to give 3 critically acceptable reasons against this poem i.e.'Rajjo Ki Chitthi', I assure you that I shall take no time in throwing this poem in dustbin.
Thirdly, I don't claim to be a great poet. What I tried to express/depict in the concerned poem is available before your eyes in form of 'Rajjo Ki Chitthi'.
Forthly, 'Rajjo' will (and of course, she should) keep on appearing & re-appearing...not only in Hindi poetry, but also in other Languages whether regional or global. I'm very much convinced.
Here I would ask you one question with a keen eye in the way of your forthcoming reply, if you please.
What's the harm, if Rajjo's face keeps popping up again & again in literature...be it prose or poetry.
Have all the problems of Rajjo's miserable life been solved?
If yes, then...Where has the feeling of unrest among the down-trodden/poor people come from?
If not, then...my dear, why should she not be brought forward? Why should she not appear into the scene? Why should her miserable face with the eyes shedding tears in search of social justice not be depicted? Why should her sorry- plight not be translated into words?
Fifthly, You wrote "seelable itom". Ha...ha...ha!!! Dear, How ridiculous it is to note that you couldn't spell both the above words correctly. Hope you have a dictionary at home. The correct spellings are 'salable' (also: 'Saleable') & 'item' respectively.
जितेन्द्र जी, आपका लेखन और जोहर दोनों ही देखने लायक है. लेखन तो रज्जो की चिट्ठी में दिख गया और जौहर आपके करारे जवाब में जो आपने उस अनाम व्यक्ति को दिया. शुभकामनायें
जितेन्द्र जी, आपका लेखन और जोहर दोनों ही देखने लायक है. लेखन तो रज्जो की चिट्ठी में दिख गया और जौहर आपके करारे जवाब में जो आपने उस अनाम व्यक्ति को दिया. शुभकामनायें
जितेंद्र जी,
कुछ लोग छिपकर टिप्पणी इसलिए करते हैं ताकि उनकी पहचान उजागर न हो जाए.. और फिर उन्हें ख़ुद अपने कहे पर ऐतबार नहीं होता... वर्ना हिंदी कविता पर (ग़लत)अंगरेज़ी में प्रतिक्रिया देना कहाँ तक उचित है... इनको इग्नोर करें..वैसे भी राहत साहब का कहना है कि
ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफाई न दे!
Pradesh me pati kaa gaye hai jis gareebi ko vo jhel rahi hai aur shikayat kar rahi hai..Shashak chitran ..bahut khoob..
aapne Rajjo kee zindagee ka jo kavyaatmak chitra kheechaa hai,usko parhakar meree aankhon mein aansoo aa gaye...kitanaa sundar chitra ukera hai aapne.
“बापू को
सूती की एक लँगोटी ले आना।
और सभी के लिए
पेटभर रोटी ले आना!
मुन्नू चच्चा से कहकर
ये चिट्ठी लिखवाई।
जल्दी से पहुँचइयो दिल्ली,
....हे दुर्गा माई !” जौहर साहेब ! यकीन मानिए आपकी कविता लाज़वाब है. भले ही आपको तीसरा पुरस्कार मिला हो...परन्तु मेरी नज़र में इससे बेहतर कविता हो ही नहीं सकती थी. आपने रज्जो का कलेजा निकाल कर रख दिया है इस खत के जरिये ! वाह कोई जवाब नहीं आपका! गरीबी और बदनसीबी का चित्रण इतना सजीव किया है कि देखते ही बनता है. इतनी फटहाली में भी रज्जो को पूरे परिवार की फिक्र है...इसकी मिसाल सिर्फ हिन्दुस्तान में ही मिल सकती है. इस बेहद सुन्दर कविता के लिए आपको बधाई और बहुत बहुत साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय
श्री सोहन चौहान जी से लेकर श्री अश्वनी कुमार रॉय जी तक जितने भी काव्य-मर्मज्ञों/मित्रों/शुभचिंतकों ने अपनी मूल्यवान टिप्पणियों से ‘रज्जो की चिट्ठी’ को नवाजा, मैं उन सभी गुणीजनों के प्रति अपना हार्दिक आभार ज्ञापित करता हूँ...अपने इस मत्अले के साथ कि :
आपने प्यार हमको अपरिमित दिया।
शुक्रिया! शुक्रिया! शुक्रिया! शुक्रिया!
साथ ही, ‘बे-नामी’ रूप में आये दो में से उन ‘बे-नामी’जी (जिनकी टिप्पणी पर मैंने कुछ सवाल किए थे) को ‘श्रद्धांजलि’ अर्पित करता हूँ...! ‘श्रद्धांजलि’ इसलिए कि वे मेरे तमाम अनुरोध के बवजूद भी अपने ‘जीवित’ होने का प्रमाण नहीं दे सके/सकीं। प्रभु उनकी आत्मा को शांति दे!
और हाँ... साथ ही दुआ करता हूँ कि यदि किसी साइट/ब्लॉग आदि पर उनका पुनर्जन्म हो, तो विमल बुद्धि के साथ...! जो खण्डन अथवा मण्डन तो करे... लेकिन समालोचनात्मक दृष्टि से स्वीकार्य तर्कों के साथ!
जितेंद्रजी बहुत खूबसूरती से एक महिला के मनोभावों का खाका खिंचा आपने.....
बडी ज़मीन से जुडी हकीकत परक रचना लगी रज्जो की चिट्ठी......
दलिया के लालच में कल
‘इस्कूल’ गया छुटुआ।
उमर नहीं थी पूरी सो,
‘इडबीसन’ नहीं हुआ !
बहुत ही सुन्दर शब्दों में ढली यह पंक्तियां, बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
रज्जो की चिट्ठी में इस्तेमाल की गई भाषा ने उसे और जियादा मार्मिक बना दिया है.
कुँवर कुसुमेश
ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com
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