एम वर्मा पिछले एक वर्ष से लगातार प्रकाशित हो रहे हैं। जनवरी 2010 के यूनिकवि भी रह चुके हैं। जुलाई माह की प्रतियोगिता में इनकी कविता ने चौथा स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता- यह गुनाहगार है
मी लार्ड!
यह जो आदमी खड़ा है
ताउम्र यह
खुद ही के खिलाफ लड़ा है;
यह कातिल है
अपनी ही भावनाओं का,
इसने अपने सपनों को
अनाहूत सा भगा दिया;
फिर भी यदि सपने आये तो
खुद ही को जगा दिया,
इसने कड़वे घूट पीने का
खुद को आदी बना दिया है
और आज देखिये स्वयं को
स्वयं के खिलाफ
प्रतिवादी बना दिया है
मी लार्ड!
मेरे पास गवाह भी हैं
जो यह साबित कर देंगे कि
यह लड़ा ही नहीं
उन तमाम सम्भावनाओं के लिये
जिसे यह हासिल कर सकता था
यह कतराता रहा
अपने इर्द-गिर्द;
अपने आस-पास देखने से
खुद को वंचित रखा
भोर की उजास देखने से,
यह गुनहगार है
स्वयंभू ताकतों के खिलाफ
न लड़ने के लिये
और फिर खुद के माथे पर
सलीब जड़ने के लिये
मी लार्ड!
अब जबकि
इसका जुर्म साबित चुका है
इसे सजा दीजिये
जीजिविषा और हक के साथ
ताउम्र जीने के लिये।
पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
ओह...लाजवाब !!!
निःशब्द कर दिया आपकी इस अप्रतिम रचना ने तो...सहज ही विस्मृत न हो पायेगा यह...
आपकी लेखनी को नमन !!!
behatareen....
bahut achhi kavita, kuchch samay se vyastataon ke karan koi tippani nahi kar pa rahi thi kintu is kavita ko padh kar ruka nahi gaya.
Sadhuvaad.
बेहद खूबसूरत रचना
इसने कड़वे घूट पीने का
खुद को आदी बना दिया है
और आज देखिये स्वयं को
स्वयं के खिलाफ
प्रतिवादी बना दिया है
खूबसूरत रचना
यह लड़ा ही नहीं
उन तमाम सम्भावनाओं के लिये
जिसे यह हासिल कर सकता था
यह कतराता रहा
अपने इर्द-गिर्द;
अपने आस-पास देखने से
खुद को वंचित रखा
भोर की उजास देखने से,
यह गुनहगार है
स्वयंभू ताकतों के खिलाफ
न लड़ने के लिये
और फिर खुद के माथे पर
सलीब जड़ने के लिये
nishabd kar diya aapne...
bahut sundar..!!
एम वर्मा जी ,
नमस्कार !
बहुत खूब स्वयं को ही कटघेरे में प्रस्तुत कर दिया , वाकई इन्सां स्वयं को आईने देखना नहीं चाहता ,
सुंदर अभिव्यक्ति .
साधुवाद !
वर्मा जी की रचनाओं के तो पहले ही कायल हैं उन्हें बहुत बहुत बधाई।
एम वर्मा की कविता बहुत ही सामायिक एवम सशक्त है. मानविय जिजीविषा की सार्थक अभिव्यक्ति है.
प्रभा मुजुमदार
ताउम्र यह
खुद ही के खिलाफ लड़ा है;
यह कातिल है
अपनी ही भावनाओं का ।
बहुत खूब लिखा है आपने बेहतरीन प्रस्तुति ।
... behad prasanshaneey rachanaa !!!
waah bahut shaandar kavita kahi hai.
“अपने आस-पास देखने से
खुद को वंचित रखा
भोर की उजास देखने से,
यह गुनहगार है
स्वयंभू ताकतों के खिलाफ
न लड़ने के लिये
और फिर खुद के माथे पर
सलीब जड़ने के लिये
मी लार्ड! अब जबकि
इसका जुर्म साबित चुका है
इसे सजा दीजिये
जीजिविषा और हक के साथ
ताउम्र जीने के लिये।“बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति में अंतर्द्वंद परिलक्षित हुआ है इस कविता में! कवि का प्रयास सार्थक एवं प्रभावी है. यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई पाप करके स्वयं को अपराधी ठहराए. क़ानून में पाप की कोई सजा नहीं है जबकि दिखाई देने वाले गवाह युक्त अपराधों के लिए ही अभियोग चलाया जाता है और सजा दी जा सकती है. अश्विनी कुमार रॉय
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